सोमवार, 29 सितंबर 2008
महिलाओं के लिए कानून बने है।
महिलाओं के लिए 40 कानून बने है। सत्ती प्रथा से लेकर दहेज हत्या, भ्रण हत्या, डायन हत्या, से लेकर घरेलू हिंसा पर कानून बन चुकी है। ध्यान देने योग बात यह है कि लम्बे से समय से आधी आबादी ने अपने अधिकार के लिए अपनी स्वतंत्रता के लिए जो आंदोलन घर के बारह छेडे वही आंदोलन घर के अंदर नही छड पाए हैं और अधिकार और स्वतंत्रता का जो दायरा कल था वह आ भी कायम हैं। कानून अचानक से इतने बन गये किन्तु सत्ता से लेकर उच्चे पदो पर आई जरूर हैं किन्तु वहां निर्णय प्रक्रिया से दूर रखा गया हैं चाहे वह संसद से संडक, संडक से पंचायत तक और पंचायत से परिवार तक की स्थिति वही बनी रही सिर्फ शब्द बदल गये और आधी आबादी के चैखट को हिला दिया गया उसे नयी तकनीकी के साथ जोडे गये नही पूंजीवाद घर के आंगन तक उसे मानसिक और शरीरिक शोषण के लिए खडे मिलेंगे इस लिए अब लोगो का मामना हैं देश के अंदर चल रहे जितने भी स्त्री अधिकार के लिए बनाए गये कानून में महिलाओं की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है। सवाल यह उठता हैं कि घर में रहने वाली महिला जब यह कानून बनाने में योगदान नही दिया तब यह कानून किस काम कि है।
सरकारी स्कूल में बुनियादी जरूरत से बच्चे वंचित
अलोका रांची
भारत देश में सरकारी स्कूलों का भाग्य बदला नहीं जा रहा है। भाग्य को बदलने के लिए गुणवत्त "िाक्षा पर काम करने की जरूरत है। सरकारी स्कूलों के गिरतें स्तर से शक्षा के गुणकारी के स्तर का पता लगता है। सरकारी "िाक्षा के क्षेत्र में "िाक्षा को सुधारने का कोई प्रयास अब तक नहीं किया है। भारत गरीबों और मेहनतक"ा लोगों का दे"ा है। वह राज्य कृ'िा तथा जंगल प्रधान रहा है, सबसे अधिक गरीब जीवन बिताने वाले किसान, मज+दूर, आदिवासी तथा दलित लोग निवास करते है। जहां "िाक्षा नाममात्र या केवल दाखिला ही रह गया है। दाखिले का महत्वपूर्ण क्षेत्र सरकारी स्कूल ही रहें है। 80ः गरीब परिवारों के बच्चें सरकारी स्कूल में पढ़ते है। जिसमें आधे से अधिक बच्चे स्कूल आना पसंद नहीं करते है। कुछ बच्चे मध्यान भोजन के प्रचलन के कारण आते है। स्कूल न आने के कारण पता लगाने पर जानकारी मिली की उन बच्चों को स्कूल के "िाक्षक पंसन्द नहीं है। बच्चों को अंग्रेज+ी नहीं आती और "िाक्षक अंग्रेज+ी याद करने के लिए दे देते है। गणित की जानकारी मास्टर नहीं देते है। पढ़ाई में मन न लगने से किताबी चीज+ों को सही तरीकों से जान नही पाते है। मास्टर कहते है परीक्षा के समय में स्कूल ज+रूर आ जाना। बच्चों के किताबी ज्ञान को बढ़ाने के लिए मास्टर व मैडम पहल नहीं करते है। झारखंड के सुदूर गांव तथा जंगल के क्षेत्र के साथ - साथ "ाहर के सरकारी स्कूलों का स्थिति भी काफी खराब है। चुंकि झारखंड जंगल क्षेत्र में होने के कारण नक्सलियों का आ"िायाना है, जिस कारण जंगल के क्षेत्र के सरकारी स्कूल पर "िाक्षक नही आते। कई स्थानों में वहां के स्थनीय लोगों के सहयोग से स्कूल चल रहे है, लेकिन इन्हें सरकार के लोगों से मदद नहीं मिलती है। एक उदाहरण के तौर पर रांची के राजधानी से सटा तैभारा पंचायत के पानसकम गांव में नक्सलियों का डेरा होने के डर एक से पांचवीं कक्षा के स्कूल बंद पड़ गये है। जबकि कोड़दा गांव में अब मास्टर के नेतृत्व में ही स्कूल चल रहा है। सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या कम है कारण की स्कूल में बिजली, पानी, "ाौचालयों की सुविधा न होने के कारण छात्र पानी पीनें या "ाौचालय जाने के बहाने बाहर जाते है और क्लास रूम में वापस नहीं आते है। स्कूल में मनोरंजन के साधनों का अभाव है। ये अभाव बच्चों को स्कूलों से दूर कर रही है। स्कूल में पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियों से बच्चों को नहीं जोड़ा जा रहा है। सरकार के एक भी स्कूल ऐसा नहीं है जिसे "िाक्षा के गणवत्ता का कारण पहचान किया जा सके। झारखण्ड के वेब साइड में सरकार ने खुद ही अपने द्वारा चलाए जा रहे स्कूल को अच्छी श्रेणी में नहीं बता पा रहें है। जबकि उनके वेब साइट में प्राइभेट स्कूल के कई नाम अच्छी श्रेणी में दर्ज किये गये। ब्रिटि"ा ज+माने में बनें हर जिला स्कूल अपनी गरीमा को दर्"ााता था। आज+ादी के 60 सालों बाद उस जिला स्कूल की स्थिति खस्ता बन गई है। इन स्कूलों की "िाक्षा की गुणवत्ता को जानबूझ कर कमज+ोर किया गया ताकि वहां पढ़ने आने वाले आदिवासी, दलित, गरीब, विधवा के बच्चों में प्रतिभा न आ सकें। ताकि वे उच्च ओहदे की नौकरी को प्राप्त करने के सक्षम न हो सकें। झारखंड के अलग राज्य होने के बाद स्कूली क्षेत्र में लड़कों और लड़कियों में भेद किया जा रहा है। लड़कियों को स्कूल में "ाामिल करने के लिए साइकिल उपहार के रूप में दिए जा रहें है। ताकि लड़किया स्कूली "िाक्षा से वंचित न हो सकें। सरकारी स्तर पर लड़कियों के साथ भेदभाव करने से, समाज में और सरकारी स्कूल में लड़कें व लड़कियों के "िाक्षा के साथ अंतर किया जाता है। इस प्रक्रिया से लड़कियां गुणकारी "िाक्षा से दूर है क्योंकि "िाक्षा का प्राच्य व्यवस्था को बिना बदले किसी लड़की को साइकिल दान देने से "िाक्षा की गुणवत्ता में परिवर्तन के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाएं जा रहें है। सरकार खुद जि+म्मेदारी "िाक्षा को कम करने में। झारखंड सरकार ने सरकारी स्कूल के बच्चों को फेल नहीं करने की घो'ाणा की है, साथ ही यह घो'ाण कर दी हैं कि जिस स्कूल में जिस कक्षा का बच्चा फेल करेगा असके टिचर को निलंबित कर दिया जाएगा। ऐसी स्थिति में "िाक्षिकों के ऊपर दबाव बना कर पास करना ही है। ऐसी स्थिति में बच्चें को पढ़ाने और पाठयपुस्तक का अभ्यास लगातार नहीं करा पाते है। बच्चें को भी अपने पाठयपुस्तक के अभ्यास लगातार नहीं होने पर उनके दिमागी विकास सिमट कर रह जाती है। जिससे बच्चों में रचनात्मक कार्य करने की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है। यही कारण है कि सरकारी स्कूल से निकलने वाले गरीब मां बाप के बच्चें दे"ा के उच्च पदों व स्थानों के अनुभव से वंचित रह जाते है और एक दो निकल भी गये ंतो उनका कार्य सफल नहीं माना जाता है।सुझाव - बच्चों का मानसिक विकास रचनात्मक कार्यों से होता है। वह स्वंय करेगा जब उसकी काम के प्रति लगन बढ़ेगी। इससे वह खुद को जोडेगा और आसमास के लोगों को भी जानेंगा। बच्चें का विकास स्कूल के विकास से जुड़ा हुआ है। बच्चें के विकास से गांव, समाज तथा समुदाय का विकास संभव है। "िाक्षा स्वास्थ्य, पानी बिजली के साथ तकनीकि क्षेत्र के ज्ञान को बच्चों तक पहुंचाया जाए। विज्ञान से संबधित प्रयोग "ाालाओं का निर्माण सरकारी स्कूल में बच्चों को जोड़ने के काम के साथ "िाक्षा को गुणकारी बना सकता है।
सोमवार, 22 सितंबर 2008
वरिष्ठ लेखिका प्रभा खेतान नहीं रहीं
कोलकाता. 20 सितंबर 2008
सुप्रसिद्ध कथाकार डॉ. प्रभा खेतान नहीं रहीं. 66 वर्षीय प्रभा खेतान ने कल देर रात कोलकाता में अंतिम सांस ली. दो दिन पहले ही उन्हें सांस में तकलीफ की शिकायत के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था. शुक्रवार को उनकी बाईपास सर्जरी की गई थी, जिसके बाद उनकी हालत बिगड़ गई.1 नवंबर 1942 को जन्मी प्रभा खेतान ने आओ पेपे घर चलें, पीली आंधी, अपरिचित उजाले, छिन्नमस्ता, बाजार बीच बाजार के खिलाफ, उपनिवेश में स्त्री जैसी रचनाओं से हिंदी जगत में अपनी महत्वपूर्ण जगह बनाई थी.
सिमोन द बोउवा की पुस्तक ‘दि सेकेंड सेक्स’ के अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’ ने उन्हें स्त्री विमर्श की पैरोकार के तौर पर पहचान दी. कुछ समय पहले आई उनकी आत्मकथा 'अन्या से अनन्या' को लेकर भी हिंदी साहित्य में विमर्श का एक सिलसिला शुरु हुआ था.
कोलकाता के व्यवसायी जगत में भी प्रभा खेतान ने अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई थी। वे कोलकाता चेंबर ऑफ कामर्स की पहली महिला अध्यक्ष भी रही थीं.उनकी अंत्येष्टि रविवार को कोलकाता के नीमतल्ला घाट में संपन्न होगी.
साभार रविवार से
भारत में नारी मुक्ति आंदोलन का इतिहीस
आदिवासी समाज आदिवासी समाज भले सभ्य समाज के तथाकथित परिकृ’ट संस्कारों से लैस नहीं पर वहां स्त्री दासी नहीं है। प्रेम तथा विवाह करने अथवा बाहर जाकर खुद से खटने कमाने और स्वावलंबी बनने को स्वतंत्र है। वहीं कोई बच्चा हरामी नहीं माना जाता है। वहीं विवाह इतना जड़ नहीं है। वहीं रि”ता गति”ाील है वह बनता है - टूटता है - फिर जुड़ जाता है। यानि काफी सहज है। औरत की अपनी इच्छा भी इस व्यवस्था में रची बसी होती है। वै”वीकरण व बाज+ारवाद के चलते स्त्रियां वस्तु बनती जा रही है। इस पर कुछ दूर तक सहमत करते हुए वे कब वस्तु नहीं थी, वे तो घर परिवार और समाज की नज+रों में वस्तु ही थी। वे खुद को वस्तु की ही तरह पति व तरिवार के लिए सजती संवरती थी। आज घर का दायरा टूटकर बाज+ार तक पहुंच गया है। पहले भी ये दरबारों, भक्त मंण्डलियों या साधु संतों तक जाता था। कौन नहीं जानता की राजा - महराजा स्त्रियों को वि’ाकन्या बनाकर दूसरे राज्यों में भेजकर राजाओं की हत्या करवाते थे। इन्द्र ने मेनका का उपयोग वि”वामित्र का तप भंग करने के लिए किया था। आखिर क्या समझकर एक सुंदरी को हथियार या औज+ार माना गया? इन सब के बावजूद इन स्त्रियों को न समाज ने, न इतिहास ने योद्धा माना और न ही “ाहीद कहा उनकी विरूद्ध बालियां भी नहीं गायी गयी। अनेक मिथक इसके साक्षी है कि भारतीय मानस में स्त्री सदैव एक वस्तु ही रही, चाहे घर हो, धर्म या सत्ता के गलियारे या बाज+ारों के कोठे। बल्कि आज स्त्री खुद को मनु’य मानने और मनवाने की मुहिम में सक्रिय हुई है। जहां बाज+ार व वै”वीकरण उसे विज्ञापन तो बना रहा है पर वही वह वै”वीकरण उसे वि”व के पैमाने पर एक सूत्र में जोड़कर स्त्री को स्त्री के नाते अस्मिता मजबूत करने का अवसर भी दे रहा है। झारखंड के आदिवासी समाज में स्त्री को हल जोतने की मनाही है। अगर वह हल जोत ले तो दंडस्वरूप बैल की तरह उसी को बैल बनाकर भूसा खिलाया जाता है और कंधे पर हल डालकर उससे खेत जुतवाया जाता है। इसी प्रकार छत (घर का छपर छाने) डाल लेने पर स्त्री का मुंह काला करके, सिर मुंडवाकर पूरे गांव में घुमाया जाता है। स्त्री को धनु’ा छूने का भी अधिकार नही है। हालांकि महेतास में जब - जब आदिवासी पुरू’ा पीकर बेहो”ा थे तो औरतों ने धनु’ा चलाया और तीन बार मुगल आक्रमणकारियों को परास्त किया था।
रविवार, 21 सितंबर 2008
सफदर समूह का काम
पंचायत चुनावों में महिलाओं
aloka
देश में सम्पन्न हुए पंचायत चुनावों में महिलाओं ने जिस तरह पर्दा और चहारदीवारी से निकल कर बढ़-चढ़ कर भागीदारी निभाई है उससे यह तो साबित ही हो गया है कि महिलाएं भी अब अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुई हैं, उनमें आत्मविश्वास बढ़ा है और नए साहस से लवरेज नजर आने लगी हैं। उनमें अपार ऊर्जा का संचार हुआ है। पंचायत चुनावों में चयनित महिलाएं अब पुरुषों पर निर्भर नहीं रहना चाहती हैं। वे आत्मविश्वास के साथ अपने सभी कामों को स्वयं अपने बलबूते पर करना चाहती हैं। साथ ही वे अपने काम का आकलन भी जरूरी समझती हैं। आरक्षण की बिना पर ही महिलाएं पंचायत चुनावों में नए कीर्तिमान के साथ उभर कर आई हैं। यद्यपि प्रत्येक चुनाव की तरह ही इन चुनावों में भी धन की भूमिका काफी अहम रही फिर भी पैसे के अभाव में भी चुनाव जीतने के कीर्तिमान स्थापित हुए हैं। बिहार के कटिहार जिले के बलरामपुर ब्लाॅक में कीरोरा पंचायत में एक भिखारिन हलीमा खातून मुखिया निर्वाचित हो गई हैं। इसी प्रकार पूर्णिया जिले में भी चाय का ठेला लगाने वाली शांति देवी भी पंचायत सदस्य चुनी गई हैं।
पंचायत चुनावों में नवनिर्वाचित महिलाएं यद्यपि पूरी तरह से उर्जान्वित हैं अब देखना यह है कि रचनात्मक रूप में इस ऊर्जा का किस हद तक उपयोग हो पाता है; क्योंकि क्षेत्र पंचायत में काम करने के दौरान नई-नई कठिनाईयों एवं बाधाओं से जूझना पड़ेगा, और वे उन कठिनाइयों और बाधाओं से जूझने में किस हद तक सफल हो पाएंगी। और फिर उन हालातों में जब पंचायत चुनावों में निर्वाचित होकर जन सेवा करने का भाव गायब होता जा रहा हो और चैधराहट दिखाने की भावना बल पकड़ती जा रही हो।
ग्राम पंचायतों में ग्राम प्रधानों व सेक्रेेटरियों की पौ-बारह है। ग्राम पंचायतों में हो रही धांधलियों पर शिकायत के बावजूद मिलीभगत के चलते प्रशासन द्वारा कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जिसकी वजह से ग्राम प्रधान सेक्रेटरी के साथ मिल कर अपनी मनमानी कर रहे हैं। देश की तमाम ग्राम पंचायतों से विधवा पेंशन, रोजगार गारंटी योजना के जाॅबकार्ड, मिड-डे मील वितरण तथा बीपीएल राशनकार्ड बनाने के तौरतरीकों में हो रही धांधलियों की शिकायत आने के बावजूद उनके निस्तारण पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कुछ ऐसे संकेत मिले हैं कि तमाम जगह तो दंबगई और चैधराहट के चलते ग्राम प्रधान और सेक्रेटरियों की शिकायत करने का साहस तक नहीं जुटा पा रहे हैं। अगर कोई शिकायत करता भी है तो उनकी शिकायत को तरजीह देने के बजाय टरकाऊ लहजे से टाल दिया जाता है।
आज हमारा समाज एक बदलाव के दौर से गुजर रहा है। लगभग 61 वर्’ाों के “ाांत सुगम परिवर्तन की प्रक्रिया के बाद महिलाओं को अपने गांव की पंचायत में मजबूती से खड़ा होने का मौका मिला है। जिससे समाज में गुणवत्ता परिवर्तन आया है। भारत के एक दो राज्य के छोड़ कर लगभग सभी राज्यों के पंचायतों में महिलाओं की भूमिका मजबूती के साथ बनती जा रही है। जिससे गांव के अन्दर स्वास्थ्य और ”िाक्षा में मजबूती से काम चल रहा है। जहां-जहां महिला पंचायत के रूप में चुनाव जीत कर आई, उस गांव के परिदृ”य बदलने लगा। हर गांव में सही क्षा का सवाल प्रमुखता से लिया जाने लगा है। समाज कल्याण, परिवार कल्याण और जन-स्वास्थ्य पर पंचायत जिम्मेवारी लेने लगी है।
शनिवार, 20 सितंबर 2008
एक और महिला संगठन बनाना जरूरी क्यों ?
महिलाओं को आधार बना कर अनेकों संगठन पहले से हैं किन्तु उन संगठनों को महिलाओं ने अपनी आव’यकता को देख कर नहीं बनाया बल्कि दुसरे संगठन में एक विग के रूप में महिलाओं का होना तय किया गया। आज तक भारत में जितने भी महिला संगठन हैं वह किसी न किसी संगठन के अधीन बना है। अधिन वाली स्थिति लगातार बनी हुई है। महिलाओं को कभी भी एक वर्ग के रूप में नहीं देखा गया है। अब तक के भारतीय समाज में औरतों के लिए जो ढांचा समाज ने बनाया है महिलाएं उसके अधिन हैं। हमारे समाज का ढांचा पूर्व में सामंती अर्थव्यवस्था आधारित था और अब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था आधारित हैं. क्योंकि इस व्यवस्था की वैचारिक स्थिति भी होती हैै जो समाज के व्यक्ति को उस व्यवस्था के लायक बनाता है। जिसके कारण पुरूषों की तरह इस समाजिक ढांचा में महिलायें भी रहने की आदि हो गयी हैं। लम्बे समय से अधिन रहने कि प्रक्रिया में नये संगठन को बनाना और उसके रूप-स्वरूप पर विचार करना महत्वपूर्ण है। हर बार नये संगठन बनते और कमजोर होते रहें हैं, इस पर विचार करने की जरूरत है। महिला संगठन या आंदोलन के कमजोर होने के मूल कारण जो हमारे सामने स्पष्ट हैं वह है वर्ग के बाहर अब तक महिलाओं को देखा गया है, महिलाओं को अस्मिता के रूप में देखा गया है। जबकि सही तरीके से देखें तो हमारे समाज में उत्पादन और उत्पादन के संबध के साथ जुडे हुए समाज में लैगिक भेद हैं। समाज में उत्पादन में दो तरह के संबध है। 1. उत्पादन के साधन का मलिक होना और 2. उत्पादन के साधनों के मलिकों द्वारा ’ाोषित होना, जिनके श्रम को खरीदा जाता है, यानि मेहनतक’ा। इस आधार पर औरत कहीं भी उत्पादन के साधन की मलिक नहीं है(एक दृष्टि है)। भारतीय समाज में जातिय संरचना है जहां उत्पादन के साधन से महिला से वंचित है। उत्पादन के साधन हंै-जमीन, म’ाीन, फैक्ट्री, आदि। समाज में दो तरह के उत्पादन है -ः 1. अतिरिक्त ( बे’ा) मूल्यः मानव श्रम ’ाक्ति से अतिरिक्त ( बे’ा) मूल्य पैदा होता है। जिससे पूंजीपतियों का विकास होता है। पूंजीवादी संबधांे का विकास होता है और‘’ाोषण की व्यापकता होती जाती है। 2. पूर्णउत्पादन ;तमचतवकनबजपवदद्धरू एक मजदूर अपने औरत के साथ एक मजदूर पैदा करता है। इस हिसाब से समाज, राज्य, राष्ट्र में वह सबसे नीचले पायदान पर है, एक निचले तबके की है और पूंजीवादी समाज में सबसे नीचला तबका श्रम करने वालों का होता है। पंूजीवादी विचार के खिलाफ क्रांतिकारी विचार के आधार पर संगठन न तो बनाने दिया जाता है और न हीं बनाया जाता है। आज तक जितने भी संगठन बने हंै एकल आधार पर ही बनता है- जाति, लैंगिक, मजदूर, आदि का संगठन बनता है। समग्र रूप से देखंे तो महिला आंदोलन एकलवादी आंदोलन है। वर्ग के आधार पर कभी संगठन नहीं बना है। महिला संगठन लैंगिक आधार पर बनता है वर्ग के आधार पर नहीं बनाया जाता है। यदि वर्ग के आधार पर संगठन बनाते, तब आजादी के 60 सालों में महिलाओं की राजनीतिक पार्टियों में महत्वपूर्ण भूमिका होती और महिलाएं नेतृत्व में बहुतायत की संख्या में होती।महिलाओं के लैंगिक-दैहिक ’ाोषण सामंती-पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था के कारण है। यूरोप के दे’ाों में पढ़ी-लिखी औरतों ने अपना संगठन बनाया, जिसमें महत्वपूर्ण नेता ‘सिमाॅन दी वाॅ’ ने भी नहीं समझीं और वह भी लैंगिक आधार पर संगठन बनाती रहीं। उन्होंने इस बात पर घ्यान नहीं दिया। उनकी पुस्तक दी सेकेण्ड सेक्स में उन्होंने यह स्वीकार करते हुए कहा है कि वे पुरूषांे के अधिन हैं। लेकिन समाज मुक्ति-आन्दोलन के लिए किसी आन्दोलन व संगठन को लैंगिक आधार पर आदमी और औरत में बांटा नहीं जा सकता। इससे समाज के मुक्ति-आन्दोलन के संघर्ष को आगे बढ़ाया नहीं जा सकता और मुक्ति-संघर्ष को उच्च स्तर पर नहीं पहुंचाया जा सकता है। यूरोप में औरतों के आन्दोलन औरतों पर आधारित पुस्तकों, फिल्मों, संगीत की ओर जाने वाला दृष्टिकोण या फिर मोटे तौर पर सांस्कृतिक आधार पर ही रह गये। ‘सिमोन’ कोई छोटी-मोटी बुद्विजीवी नहीं थीं। लेकिन अपने मध्यवर्ग स्थिति के कारण अपने किताब में वर्ग की बात नहीं की। भारत में महिलाओं को जात के आधार पर बांट दिया गया (सबसे निचले स्तर के जातियों के परिवारों में महिलाएं ’ाोषत होती है) । आज तक जितने भी महिला संगठन हैं वह किसी न किसी राजनीति पार्टी के अधिन ही रही हैं। उसका अपना स्वतंत्र समूह बनने नहीं दिया गया है जो अपने वर्ग ‘ मेहनतकश वर्ग ’ के साथ जुड़ कर अपने मुक्ति के संघर्ष को उच्च स्तर पर पहुंचा कर शोषण के इस व्यवस्था को समाप्त करके एक शोषण -मुक्त व्यवस्था बना सके।