सोमवार, 26 मई 2008

इन संस्थानों को महिला की सहायता के लिये चलाया जारहा हैं

भारत मे इस समय निम्नलिखित संस्थानों को महिला की सहायता के लिये चलाया जारहा हैं । आवश्यकता पड़ने पर इन से सम्पर्क किया जा सकता हैं । कुछ पत्ते हम सब को अपनी पर्सनल डायरी मे रखने चाहीये ताकि समय पर हम उन्हे दूसरो के लिये उपलब्ध करा सके । कुछ संस्थानों से जुड़ना भी चाहीये पर व्यक्तिगत कारण से अगर ना सम्भव हो तो इनकी जानकारी अवश्य रखे ताकि आप समय रहते किसी की साहयता कर सके
Joint Women's प्रोग्राम
CSIRS, 14 Jungpura B, Muthura Road,
New Delhi : 461-9821Fax: 462-3681।
इंडिया
पुणे
National Council of Women In IndiaPoona Medical Foundation,
Ruby Hall Clinic,
40 Sassoon, PO Box No। 70,
puने41100india

Centre for Women's Development स्टडीज

The लाइब्रेरी
25 Bhair Vir Singh मार्ग
Gole मार्केट
110 ००१
New DelhiIndiaTel: +91 11 334 ५५३०
or +91 11 336 ५५४१
Fax: +91 11 334 ६०४४
E-mail: cwdslib@alpha.nic.in or cwds@sscwds.ren.nic.इन
CWDS is a research centre comprised of a group of professionals workइनg for the realization of women's equality and development all spheres of life. The centre maइन taइन s a specialized library with a collection on women and development इन India, open to students, research scholars, gender consultants, policy makers, journalists etc।










शनिवार, 3 मई 2008

अति सुन्दर काया

अलोका
आखे जो झील मे दुबे हो
कमर के सुन्दरता
मेरी अक्खो मे घूमती हो
पुरा का पुर संसार
कायल हो गया
झील सी आखो मे

मिली मिसी दोर्ट कॉम

aलोक
हम खेलने लगे विगन से
एक बॉक्स ओर एक सब्द
बाते जो होने लगी
शब्दों से
प्रेम का पेगाम
आने लगा
शब्दों से
हम फिर बॉक्स के मध्यम से
पहुच गए नये कलयुग मे
प्रेम पत्र veg रही अंजन कों
हर छार हो रही है पुरी
एक बॉक्स मे
ज्बबो के प्रतिजबाब
श्बोतो के प्रति शब्द
आ रही हमारी जहाँn कों

शुक्रवार, 2 मई 2008

स्त्रियों ने भी रची हैं वैदिक ऋचाएं - कुमार मुकुल

वेदों के पुनरपाठ की इस कड़ी में आप देखेंगे कि जिस स्त्री के वेद पढ़ने पर ही प्रतिबंध था, उसके कई हिस्सों की रचयिता वे खुद हैं।वेदों को लेकर सबसे बड़ा वितंडा यह है कि यह अपौरुषेय है, ब्रह्मा की लकीर है, वेदों का अध्‍ययन करने पर यह भ्रम सबसे पहले दूर होता है। वेद की हर ऋचा को रचनेवाले ऋषि का नाम उसमें दर्ज है और ऋषि एक-दो नहीं पच्चीसों हैं, जिनमें दर्जनों नारियां है। अब कोई एक लेखक हो तो उसका नाम लिखा जाए वेद के लेखक के रूप में, बहुत सारे लेखक होने के कारण ही सबका नाम उनकी रचना के साथ दे दिया गया है।वेद ब्रह्मा की लकीर भी नहीं हैं, इस बारे में तो हमारे पुराने शास्त्रों में ही कई कथन मिल जाएंगे। परशर-माध्‍वीय में कहा गया हैµश्रुतिश्च शौचमाचार: प्रतिकालं विमिध्‍यते।नानाधर्मा: प्रावर्तन्ते मानवानां युगे युगे।।मतलब, हर युग में मनुष्यों की श्रुति (वेद), आचार, धर्म आदि बदलते रहते हैं। अब सवाल उठेगा कि वेदों की तब क्या प्रासंगिकता है। जवाब में हम सिर ऊंचा कर कह सकते हैं कि वेद हमारे आदि पुरुषों-स्त्रियों के प्रथमानुभूत सुन्दर विचार हैं, पर वे अन्तिम विचार नहीं हैं। दरअसल, वेद उस समय की उपज हैं, जब विकास क्रम में लगातार नई-नई चीजों की खोज हो रही थी।उनमें जो भी चीजें थीं, जो हमें कुछ देती थीं, वे आगे देवता कहलाने लगीं। ऐसा नहीं था कि केवल लाभदायक चीजें ही देवता कहलाईं। जो भय त्रास देती थीं, वे भी देवता कहलाई, जरा अपने कुछ प्रचलित वैदिक देवताओं के नाम देखें-जंगल, असुर, पशु, अप्सरा, बाघ, बैल, गर्भ, खांसी, योनि, पत्थर, दु:स्वप्न, यक्ष्मा (टीवी), हिरण, भात, पीपल आदि।अब कुछ अप्रचलित ऋषियों के नाम देखें जिन्होंने वैदिक ऋचाए रचीं-मानव, राम, नर, कुत्स, सुतम्भरा, अपाला, सूर्या सावित्री, श्रद्धा कामायनी, यमी, शची पौलमी, ऊर्वशी आदि। वेदों की रचना में स्त्रियों की महत्‍वपूर्ण भूमिका है, यह उपरोक्त स्त्री ऋषियों की ऋचाओं को पढ़कर जाना जा सकता है।मजेदार बात यह है कि स्त्री ऋषियों ने कई ऐसी ऋचाएं रची हैं जिनमें उन्होंने खुद को ही सर्वशक्तिमान कहा है। कहीं यह स्त्रियों की मजबूत स्थिति ही तो नहीं है कि आगे षड्यंत्रकारी पुरुष वैदिक भाष्यकारों ने उनको वेद पढ़ने की ही मनाही कर दी, जिसकी आज तक वकालत की जाती है। जो स्त्रियां¡ खुद वेद रच सकती हैं, उन्हें उनका पाठ करने से कोई कैसे रोक सकता है? वेद को पढ़ें, तो वे अपने समय की सहज रचना मालूम पड़ती हैं। बातें वहां बड़ी सीधी हैं। उनको समझने के लिए किसी प्रकाण्डता की जरूरत नहीं है, जरूरत उनकी अनुवाद के साथ उपलब्धता की है।वेदों में प्रकृति को लेकर सहज उल्लास है, प्रकृति आज भी हमें उसी तरह उल्ल्सित करती है। वहां छोटी-छोटी कामनाओं के लिए आदमी इन्द्र से याचना करता है। आज तक वह याचक कृति हमारे लिए अभिशाप बनी चली आ रही है। छोटे-छोटे डरों से भयाक्रान्त वैदिक मनुष्य ऋचाओं में उन्हें देवता पुकारता, उनसे मुक्ति की मांग करता है।वह विकास का आरिम्भक दौर था और जानने की प्रक्रिया में यह एक सहज क्रिया थी, विशिष्ट नहीं। जैसे ऋग्वेद के दसवें खंड के 184 वें सूक्त में ऋषि त्वष्टा लिंगोक्ता : देव से प्रार्थना करते हैं-विष्णुयोनि कल्पयतु, त्वष्टा रुपाणि पिंशतु। मतलब, देवता इस स्त्री को प्रजनन योग्य बनावें। आज इस काम के लिए लोग डॉक्टर के पास जाते हैं।क्या उन्हें आज भी किसी ऋषि की खोज करनी चाहिए? इसी तरह सूक्त 165 में कहा गया है, `इस अमंगलकारी कबूतर को हम पूजते हैं। हे विश्वदेव, इसे यहां से दूर करें।´ क्या आज भी हमें कबूतर को अशुभ मान उनसे डरना चाहिए। आज कबूतर हमारे मिन्दरों में छाए रहते हैं और कोई उन्हें अशुभ नहीं मानता है। मतलब वेदों में सारा अटल ब्रह्मवाक्य ही नहीं है।