शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

ओखला फ्लड से महिला की मूउट


this is a snaps of lady who has recently died because of flood in Okhla

सोमवार, 18 अगस्त 2008

झारखण्ड की पहली पडहा राजा मुक्ता होरों

अलोका

एन.एफ. आई और ए. आई एफ के तहत फेलोसिप के तहत शोध

झारखण्ड मे पंचायत चुनाव न होने से वहां पंचायती राज व्यवस्था का अस्तित्व खतरे में है। जहां पूरानी परंपरागत स्व’ाासन व्यवस्था की एक मजबूत कड़ी का नाम पड़हा व्यवस्था है। इस व्यवस्था के द्वारा मुक्ता होरो ने अपने जनस्वश्स्छ असं व्यवस्था के अन्तगर्त कई काम करते आ रही है। 14 गांव धीरे -धीरे विकास की प्रगति के पथ पर अग्रसर है। वही गांव से पूरे दुनिया को संदे’ा के रूप में राजधानी रांची से नजदीक बुण्डू ब्लाॅक के पानसकम गांव की महिला मुक्ता होरो लोकतंात्रिक प्रणाली की उपज है।
झारखण्ड की विभिन्न आदिवासी समुदायों के बीच आज भी अलग- अलग परम्परागत स्वा’ाासन व्यवस्था अस्तित्व में है। इन्हीं व्यवस्थाओं में पड़हा व्यवस्था प्रमुख है। 14 गांवो को मिला कर पड़हा का गठन किया जाता है। यानि हर गांव के ग्राम प्रधान को मिला कर पड़हा का चुनाव होता है। यह व्यवस्था मूलतः आदिवासी क्षेत्रों में होता है। पड़हा राजा पद पर वर्षो से पुरूषों का सत्ता कायम की है। किन्तु अब इस पद पर महिलाएं भी चुन कर आ रही है परम्परागत व्यवस्था को अधिक लोकतांत्रिक बनाने की दि’ाा में सकारात्मक है। पड़ाह सभा में प्रत्येक गांव के प्रत्येक पंचायत से दो लोग प्रतिनिधि ‘’ामिल होते है। गांव सभा सहमति के आधार पर प्रतिनिधियों का चयन करती है। उनका कार्यकाल 6 साल का होता है। परन्तु हर साल के ‘’ाुक्र में प्रत्येक प्रतिनिधि गांव सभा के सलाना सभा या जलसे के सामने अपने कार्य का व्यौरा रखते है।उसके आधार पर गांव सभा फैसला लेती है। सलाना जलसे में या बीच में किसी भी समय गांव सभा का विस्तार करने की हालत में संबंधित व्यक्ति की सदस्यता अपने- आप समाप्त मानी जाती हैं जहां क इस व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी का सवाल है। तैमारा पंचायत में महिलाओं को एक तिहाई बहुमत 12 साल पहले से प्राप्त है। वहां पड़हा राजा द्वारा खुले रूप से लोकतंत्र के सिद्वांतों का सम्मान किया जाता है। मुक्ता होरों के नेतृत्व वाले पड़हा सभा में गांव की समस्या सड़क, पानी जंगल, ’िाक्षा, स्वास्थ्य, विवाह, बाजार तथा युवा - युवतियों की समस्याओं पर चर्चा कर उनके समाधान व विकल्पों की जला’ा की जाती है। इसके अन्तगर्त तैमारा पंचायत के अन्तगर्त सभी गंाव कोनेगा, मुनीडीह, हुसरीहातू, लबगा, कोड़दा, हाॅंजेद, बेड़ा, पानसकम, आडाडीह, लोआहातू, तैमारा, और अन्य गांव है। इन गांव की कुल आबादी लगभग 16 हजार से अधिक है। इस पदर पर 5 सालों से कार्यरत्त मुक्ता होरो ने बताया कि ’िाक्षा के प्रति गांव वाले ज्यादा सचेत है। हर गांव में एक सरकारी स्कूल हे जिसमें सातवी कलास तक की पढ़ाई होती है। हर गांव का लगभग हर बच्चा स्कुुल जाता है। यदि एक बच्चा सप्ताह भर स्कूल नहीं जाने पर गांव में बैइक हो जाती है। गांव में मैट्रिक की पढ़ाई के बाद बुण्डू काॅलेज जाते है। आवगमन का साधन नही करने के कारण काॅलेज की पढ़ाई में कम लोग जाते है। पढ़ाई के बाद सरकारी नौकरी की आ’ाा है। खेती का स्थान पहले से ही बना हुआ है। जंगल की रक्षा प्रमुख रूप सेे किए जा रहे है। यह पूरा गांव मूख्यतः खेती और जंगल पर आधारित है। पहले की अपेक्षा जंगल की स्थिति में परिवत्र्तन आई है। अतः जंगल बचाने के लिए वि’ोष जोर दिया जा रहा है। जंगल के फल- फुल पत्ती, डाल, जड़ी, बुटी का उपयोग अपने जीवन में करते हैं। गांव की एक महिला बीड़ा मुण्डा ने कही जंगल का घनत्व कम हुआ है। लेकिन यदि इसे बचाया जाएगा तब हम पुर्णः पुराने जंगल की प्राप्ती कर सकते है। तैमारा के ग्रामीण तारालाल सिंह मुण्डा ने कहते हे। गांव सभा ने पड़हा राजा महिला को बनाने से गांव समाज में साकारत्मक परिवत्र्तन आया है। महिला महत्वपूर्ण पद पर आकर निर्णय लेती हे तब चुल्हा चैका से लेकर खेती- बारी और समाज के सभी लोग मूल रूप् से घ्यान दिया जाता है। उनके अनुसार स्वच्छ और स्वस्थ्य परिवार ही समाज के नव निर्माण में भाग ले सकता है। वह गांव में सरकारी योजना से लोगा लाभ नहीं उठा पा रहें हैं। गांव में एकता के बल पर ज्ञान और जानकारी बांट रहे है। दीप थोड़ा ही सही जलाने ने की को’िा’ा की जा रही है।

झारखंड इन्साइक्लोपीडिया

ःएक नजर
झारखण्ड के ’वेत - ’याम तस्वीर को अपनी सीमाओं के साथ ‘झारखण्ड इन्साइक्लोपीडिया ’ में प्रस्तुत किया गया है। इस इन्साइक्लोपीडिया के बारे में दो बाते अलग से घ्यान दिये जाने योग्य है। पहला सम्मावतः किसी राज्य का यह पहला इन्साइक्लापीडिया है और दूसरा, यह काम सरकारी संस्था के द्वारा न किया जाकर एक सरोकारों वाले प्र’ाासनिक अधिकारी के द्वारा किया गया है। झारखण्ड इन्साइक्लोपीडिया के चार खंडों में कुल 122 लेख संकलित हें जो कुल 1564 पृष्ठों पर फैले है।

बुधवार, 13 अगस्त 2008


बर्ड फुलू से ज्यादा मलेरिया से होती हैं मौत


अलोका
एन. एफ. आई. एवं ए. आई. एफ फेलो’िाप के तहत

झारखण्ड में ब्र्ड फूलू 2007, मलेरिया हर साल -ः पूरे दे’ा में मुर्गी - मुगी मारने का आदे’ा आ गया में ब्र्ड फुलू बीमारी भारत के उन गांव तक पहुंच गयी जहां तक विदे’ाी कम्पनी अपना पैर पसार रही है। यह ऐसी बीमारी है जिससे ग्रामीण क्षेत्र के मुरगे - मुरगी, बत्तख की बिमारी से ज्यादा गांव की परम्परागत लघु उद्योग को समाप्त करने की को’िा’ा है। यह बिमारी से ग्रसीत इलाका भारत का आदिवासी गांव होते है। जहां किसान कें परिवार छोटे मात्रा में प’ाु- पक्षी को घन के रूप में पालते है। मलेरिया भारत के गांव और ’ाहर तमाम स्थानों में फैली हुई है। हर साल मलेरिया से मरने वाले लोगो की संख्या हजारों- हजार है।

यह उस परिवार के लिए छोटा आय को स्रोत रहा है। पूरा का पूरा भारत के गांव में पशु- पक्षी पालने की अपनी अलग परम्परा रही है। मुरगे- मुरगी, भोजन में खाने की पद्वित भी आदिवासी गांव का ही रिवाज रहा। वक्त बदलने के साथ-साथ अन्य समाज के लोगो की पसंदीदा भोजन में मुरगे - मुरगी, खाने का प्रचलन काफी बढ़ गया और वह एक बड़े बाजार mane तबदील होते चले गये यही नही वि’व स्तर पर यह भोजन (चिकन खाने वाले की संख्या में इजाफा हुआ) प्रचलित हो गये जिससे बाजार में मांग के साथ- साथ व्यवसाय भी बन गये।

जहां- जहां बड़ा बाजार पहुचा वहां- वहां भारी संख्या में गरीबों के लधु उद्योग को धक्का लगा वक्त के साथ भोजन के अन्दाज बदले और यह बाजार व्यापक रूप में सिर्फ भारत ही नहीं पूरी दुनिया में फैल गया। चिकन खाने वाले की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। किन्तु अपने परम्परागत प’ाु- पक्षी की परम्परा में थोड़ा बदलाव आया गांव में मुर्गी पालन को पहले के अपेक्षा ज्यादा हुई हैं किन्तु उसकी बड़ी बाजार गांव के हाट होते हैं इस हाट परम्परागत मुर्गे मुर्गीयां बेचे जाती थी। धीरे- धीरे यह बाजार में दे’ाी मुर्गी के स्थान पर बॅायेलर ने जगह लेना ’ाुरू ही नही किया बल्कि उसे दे’ाी बाजार उच्ची दाम पर मुर्गे बेचे जाने लगी। और दे’ाी बाजार पर कब्जा होता चला गया। बडे बाजार ने गांव की आर्थिक व्यवस्था को काफी धका पहुंचाया। गांव के इस प’ाुधन के सामने आर्थिक संकट को देखते हुए मिडिया ने इस ब्र्ड फुलू बीमारी का जबर्दस्त कवरेज दिया। पूरे दे’ा में मुर्गी मारने की खबर अखबारों टी बी में लगातार आने लगे लाखों करोड़ मुर्गी को मार डाला गया। जंगल के किनारे बसे गांव के मुर्गे- मुर्गी को मार कर खतम करने की को’िा’ा की गयी ताकि एक भी परम्परागत मुर्गीयां ना रहे।


गांव में धुमने के क्रम में देखे कि गांव में मुर्गो की बांग नही हो रही हैं कारण पुछने पर पता चला कि गांव के सभी मुर्गी को मार दिया गया हैं। वन गांव के निवासी मणि सिंह मुण्डा ने बताया कि इस बिमारी से मुर्गी मार कर गांव की अर्थ व्यवस्था को तोड दिया गया, उन्होंने बताया कि ब्र्ड फुलू आज से 60 साल पहले नही थी। आदिवासी क्षेत्रो में इस तरह कि बीमारियां नही थी अचानक से को बिमारी उत्पन्न कर गांव के सारे पक्षी को मार डालने की साजि’ा है। हमारे समाज में सामुहिकता का जीवन जीते है। प’ाु- पक्षी भी हमारे कष्ट के दिनों में सहयोगी होते है। अचानक जिस बीमारी का परकोप हमारे गांव में पड़ा उससे लगता है कि अब पैकेट में बंद कर खाना आ रहा जिससे हमारे परम्परागत भोजन को समाप्त करने की योजना है। हमारे यहां गांव में छोटे - छोटे स्थानिय बाजार होते है। मानव आव’यकता के चीजे अपने क्षमता के अनुसार अपने घर में रखते है। उसे समाप्त कर प’चात दे’ाो के प’ाु- पक्षी का बाजार फैलाने की जो योजना चल रही। इसका सबसे बड़ा कारण है ब्र्ड फुलू पुरखा के समय में मुर्गी नही मारा जाता था। आज बाजार इतनी हावी हो गये है कि हमारी स्थानिय बाजार को समाप्त कर हमें पंगु बना देना चाहते है। आज भी भारत का गांव अपने श्रम और अपने परम्परागत चीजों के साथ जीवित है। अन्तराष्ट्रीय बाजार की अफवाह में की मार यदि कोई उठाता है तो वह हैं ग्रामीण लोक अर्थव्यवस्था

अड़की के पंचायत के पड़ाह राजा, और समाजिक कार्यकत्र्र्ता पौलूस हेम्बम ने बताया कि हमारे दे’ा में ब्र्ड फुलू से भी खतरनाक बीमारी मलेरिया है। आज तक हमारे गांव से ब्र्ड फुलू बीमारी से एक व्यक्ति की भी मौत नहीं हुई है। जबकि मलेरिया से लाखों लोगो की जान जा चुकी है। इस मौत की खबर अखबार में स्थानिय स्तर पर आते है। मलेरिया को लेकर पूरे दे’ा का अखबार कभी नही लिखे। जबकि ब्र्ड फुलू बीमारी बाजार के साथ जुड़ी है। जिस कारण इसे पूरे दे’ा के मीडिया ने स्थान दिया। मलेरिया को लेकर जिस तरीके से गांव में काम होना चाहिए नही हो पा रहा। जंगल के अंदर रहने वाले आदिवासी@ दलित समाज इस बिमारी के ’िाकार है। गांव से अस्पताल की दूरी इतनी होती है कि मरीज वहां चल कर जा नही पाएगा। अवगमन का साधन आज भी कई गांव में नही हैं मानव के उपर और प’ाु- पक्षी जानवरों के उपर जिस तरह से हमला हो रहा हैं उससे बाजार की पंजी खेल हैं हमारी चीजे कैसे नष्ट हो इसकी चाहत ताकतवर दे’ा चाहते है।

हर काम दूसरे के लिए करते मिडि़या बाजार के अनुरूप काम करती, ब्र्ड फुलू प’िचम दे’ाों के लिए काम रही है। भारत दुसरे दे’ा के लिए काम कर रही हैं
हमारे यहां बाजार के अनुरूप मिडिया काम करती है। प’िचम दे’ाो के ढ़ाचाों को मजबूत करने का कार्य करती रही है। कुछ ऐसी बिमारियां है जिनका संबध दूषित पेयजल से है और जो प्रतिवर्ष लाखों करोड़ा मौता के लिए जिम्मेदार है। इस तरह की बीमारियों के लिए विदे’ाी पूंजी सहायता प्राप्त करना काफी कठिन है इन बीमारियों में मुख्य रूप से डायरिया, पेचि’ा टाइफाइड हैजा और टी.बी है मलेरिया सहित पानी से संबंधित कई बीमारियां प्रति वर्ष हजारों लोगो की जाने लेती है।

व्यापक स्तर पर देखे तो भारत के गांव @’ाहर के हर व्यक्ति दूषित पेयजल का ’िाकार है। डायरिया से मरने वाला व्यक्ति भारत के गांव का होता है। कुष्ट रोग का ’िाकार भारत के ग्रामीण क्षेत्र के लोग होते है। करोड़ो बच्चे और महिला कुपोषण के ’िाकार है। भुख से मरने वाले लोग भारत के गांव में है। जन स्वास्थ्य पर जो पैसा र्खच होता है। उसका 98 प्रति’ात पैसा लोग खुद बहन करते है। गांवो में अस्पताल है। किन्तु वहां डाक्टर नहीं है। दवाईयां नही है। गांव के स्तर पर जो बिमारियां है। उसका इलाज ’ाहर या महानगरों में होता है। जिन बिमारियों का जिक्र कर रही हूं वह बिमारियां में अस्पताल के साथ - साथ डाक्टर और नर्स एवं विस्तर, अन्य अस्पताल की सुविधाएं होनी चाहिए वह नही है। बिमारी से पीडि़त लोग ’ाहर इलाज कराने आ जाने के क्रम मे कई लोगो की मौत हो जाती है जो बच गया वह आर्थिक रूप से इतना कमजोर हो जाता कि वह अपनी स्थिति से लम्बे समय से उबर नही पाता वह अलात काफी मंहगा होता हैं। इस इलाज के लिए उन्हे खेत बंधक में रखना पड़ता है।

रांची के बुडमू ब्लाक के मरूपीड़ी गांव के सतेन्द्र यादव एक समाजिक कार्यकर्ता है के बहन के पति बबलू की मौत मस्तिष्क मलेरिया के होने से हो चुकी वह एक किसान परिवार का था उनके परिवार ने उसे मांडर के अस्पताल में भरती कराये किन्तु उस अस्पताल ने उसे राजेन्द्र मेडिकल अस्पताल भेज दिया जहां उचित इलाज के अभाव में मौत हो गयी। सतेन्द्र यादव बताते हैं मलेरिया के लिए सरकारी अस्पताल में कोई व्यवस्था नही। मलेरिया हो जाने पर जोडि़स या टाइफाइड हो जाते है मलेरिया के किटानू ख्ूान में होते है। जिससे लोगो के ’ारीर में खून की कमी हो जाती हैं सरकारी अस्पताल में खून की व्यवस्था नही हैं। मस्तिष्क मलेरिया में कीड़नी काम नही करने जिसके लिए डायनोसिस की व्यवस्था होनी चाहिए वह भी नहीं है। जब राजधानी से मात्र 30 कि0 मी0 की दुरी पर बना मांडर अस्पताल में जो छोटानापूर के प’िचम क्षेत्र के गांव मुड़मा, माण्डर, बुडमू, ठाकूर गांव, चान्हों के लोग आते हैं। यह क्षेत्र आदिवासी और जंगल से घिरा है। अधिकंा’ा लोग किसान हैं। इलाज के लिए आते हैं छोटी बीमारी के लिए यह अस्पताल ठीक हैं लेकिन पूरा का पूरा झारखण्ड ही नही पूरा भारत इस मलेरिया बीमारी से ग्रसीत है। गांव माने गरीबी गरीबी माने मलेरिया गांव के लोग ऐसी स्थिति में जिनके पास पैसा है वह ’ाहर की ओर जाते है। गरीब व्यक्ति के पास पैसा नही होता है वह अपने जीवन से हाथ धो देते है। ऐसा ही कई हजार केस वहां है। सीबनी मुडमा की रहने वाली हैं उसे लगातार 3 बार मलेरिया से गुजरना पड़ा बार बार प्राइभेट डाक्टर से इलाज कराने के बाद भी उसे मलेरिया छोड़ नही रहा है।

वही स्थिति कुष्ट रोगी का हैं भारत सरकार कहती है कुष्ट रोगी भारत से समाप्त कर दिया गया है किन्तु रंाची के विधानसभा से मात्र 4 किलो मीटर के दूरी में बसा कुष्ट काॅलोनी अपनी बुनियादी सूविधाओं से दूर है। कुष्ट काॅलोनी के नाम पर मिट्टी के घर बना कर 500 परिवार रहते है। उन्हें कुष्ट काॅलोनी कह दिया गया हैं वहां ना लाइट हैं और ना किसी साफ सफाई की व्यवस्था कुष्ट रोगी के परिवार को 10 कि0 चावल सरकार की ओर से दिया जाता है वह चावल में कीड़े लग चुके होते हैं। उन्हें वे लेना नही पसंद करते हैं। वे लोग भीख मांग कर अपना गुजारा करते हैं।

कुछ दिनों तक गांव में धुमने के क्रम में हमने पाया कि जिस बिमारी से लोग मर रहे उसके प्रति सरकार और प्रेस दोनो संवेदन विहीन है। गरीब व्यक्ति बीमार पड़ जाए तो उसे अपनी जान दे कर ही उस बीमारी से मुक्ती मिलती है। मानव लम्बे समय से कई बीमारियों से आर्थिक रूप झेल रहा हैं। वही ब्र्ड फूलू के नाम पर हजार किस्से हमारे दुनिया में आ गयें।

बुधवार, 6 अगस्त 2008

नरेगा कानून और बेरोजगारी भत्ता (एन. एफ. आई. एवं ए. आई. एफ फेलो’िाप के तहत )

अलोका
झारखण्ड राज्य के अन्तर्गत हजारीबाग जिले के कटकम सांडी प्रखण्ड के लोग लगातार नवम्बर 2007 से नरेगा कानून के अन्तर्गत बेरोजगारी भत्ते की मांग कर रहे है। 04.02 .06 को जाॅब कार्ड दिया गया परन्तु उस जाॅब कार्ड में काम नहीं दिया गया है। कटकमसांडी के महिला पुरूष एवं गांव के तमाम लोगो ने उपायुक्त कार्यालय हजारीबाग में घरना दे कर बेरोजगारी भत्ते की मांग कर रहे है।

पूरी व्यवस्था इतनी अनसूनी हो गयी है कि बार-बार आवाज लगाने के बावजूद मजदूरों के साथ अन्याय रूक नही पाता है। नरेगा कानून के तहत फिर एक बार इस नये बेरोजगारी दूर करने के नाम पर 300 मजदूर नरेगा के तहत काम मांग रहे है। इस 300 मजदूर ने काम का आवेदन 2007 मे ही किये थे लेकिन गांव के लोगो को न काम मिला और न बेरोजगारी भत्ता फिर एक बार सरकार ने मजूदरों को अपने अधिकार देने से वंचित करता नजर आ रहे है। कानून का पालन नहीं हो पा रहा है जब सरकारी पदाधिकारी कानून का पालन नही कर सकते तब आम जनता से क्यों उम्मीद करते है?

झारखण्ड प्रदे’ा मूलतः आदिवासी दलित का क्षेत्र रहा है यहां श्रम की पूजा और अपने श्रम पर वि’वास करते है विगत 15 सालों में झारखण्ड के जल - जंगल और जमीन पर विदे’ाी कम्पनी के नि’ाानें पर है जंगल पानी के अभाव में पन्नप नही रहे है जिससे वायू प्रदूषण तेज होता जा रहा है पूराने बचे हुए जंगल पर व्यापारियों का कब्जा होता चला जा रहा है। वही जीमन के उत्पादन के घटने से भूखमरी की स्थिति उत्पन्न हो जा रहीं है। उत्पादन का कम होना बेरोजगारी को बढ़ावा देते चले जा रहे है इस बेरोजगारी पलायन को बढ़ाव देती चली जा रही है। लेकिन बचे हुए कुछ गांव अपने श्रम के बल पर आज भी जीवित हैं। उस गांव में रहने वाले लोग आज भी बेरोजगारी है काम पाना चाहते है। नरेगा कानून उन किसानों के लिए खरा नही उतर पा रहा है जिनके किसानों के लिए रिन माफ करने का वादा किया हो।

गरीब सरकारी प्रक्रिया में लम्बे समय तक जुझता है। आखिर में तंग आकर पलायन करने की सोचते है। गरीबों के नाम पर बनने वाले कानून से गरीब लाभ नही उठा पा रहे है। जबकि अपने अधिकार को लागू करने उस अधिकार को पाने के लिए लम्बे समय से संघर्ष करना पड़ता है। जैसा की झारखण्ड के हजारीबाग मे हो रहे है। सरकार उन्हें न रोजगार मुहैया करा पा रही और न बेरोजगारी भत्ता ही दे पा रही है। बेरोजगारी भत्ते के मांग के लिए कटकमसांडी के गांव के लोग लगातार उपायुक्त कार्यालय के सामने घरना दे रहे है।

बेरोजगारी भत्ता पाने वाले चिन्तामन राम ने बताय कि हमारा अधिकां’ा समय सरकार के बनाए कार्यालय में घुमते - घुमते बीत जाता है वहीं सरकार की तमाम प्रक्रिया और विकास संबधी योजना प्रखण्ड कार्यालय आती है। प्रखण्ड कार्यालय के प्रधान पदाधिकारी अपनी मनमौजी करते है। वे पैसा से पैसा बनाना चाहते है जबकि कितने गरीब लोगों के परिवार आज भी 20 रू0 में अपने जीविका चला रहे। कितने परिवार आज भी एक ही समय चुल्हा जलते है हर दिन कमाने पर भोजन प्राप्त हो सकती है। आज भी मजदूरो के नाम पर छलावा है उसका खमियाजा मजदूर और किसान ही भूगते है। कारण कि अपने पेट के लिए इस ’ाहर से उस ’ाहर से मजदूरी करने जाते हैं जिससे एक रि’ता भी बन जाता है लोग आहिस्त से पहचाने लगते है और अपने अपने काम के अनुसार हमें बुलाते है सरकारी कानून, योजना इस रि’ते को तोड देता है। एक क्रम से अपना बना था टुट जाता है। बहुत कम समय हम सरकारी लाभ उठा पाते है।

सिलादेवी लुटा गांव की रहने वाली हैं। किसी के खेत में काम करके अपनी आजीविका चला रहे थे। इस कानून के आते ही गांव के ग्रामसभा के अघ्यक्ष के लोगो ने बिना बैठक कराए र्फाम भरकर ले गये और कहा कि इसके आधार पर अब सरकार सभी गांव वाले को काम देगी और यदि नही देगी तो बदले में बेरोजगारी भत्ता देगी। हम गांव वाले समेट लगभग 50 ंलोगो नेेे इकट्ठे काम का आवेदन दिया । आवेदन हमने 2007 में दिये हमें काम नही मिला करीब 15 दिनों के बाद हम लोगो ने बेरोजगारी भत्ते की मांग की उसके लिए डी डी सी, ब्लाॅक, कार्यालय, में चकर काटते- काटते 2008 हो गयें बेरोजगारी भत्ता नही मिला फिर हम लोगो ने उपायुक्त कार्यालय के समक्ष धरना देना ’ाुरू किये जिससे कोई फायदा होता नजर नहीं आ रहा है।

उधर भारतीय कम्युनिस्ट पाटी (माक्र्सवादी ) के जिला सांगठनिक कमिटि नरेगा में हो रहे गड़बड़ी को लेकर धरना दे रहे है। और लगातार यह मांग कर रही है कि बेरोजगारी भत्ता का बिना देर किये ग्रामीणों को दिया जाए तथा सभी जाॅबधारियों को काम दिया जाए इस मांग के साथ लगातार संघर्ष चल रहे है। सी पी आई (एम) के जिला सचिव गणे’ा कुमार बर्मा ने बताया कि नरेगा के द्वारा कटकमसांडी में लगातार गड़बडियां हो रही है। जिसकी जानकारी जिला के तमाम सरकारी पदाधिकारियों को है। इसके बावजूद मजूदरों को बेरोजगारी भत्ता नही दिया जा रहा है।

सी पी आई (एम) के जिला सचिव गणे’ा कुमार बर्मा ने कहा कि भारत सरकार द्वारा नरेगा कानून लागू करना@ करवाना जिला प्र’ाासन का परम कत्र्तव्य है। अपने पत्र में अपने प्रखण्ड विकास पदाधिकारी कटकमसांडी को पत्र का उल्लेख करते हुए बताए कि मजदूरों को सामूदायिक भवन में काम करने की जानकारी दी गयी परन्तु मजदूर काम करने नही आये। प्रखड विकास पदाधिकारी 03.10.07 को ये पत्र लिखते है। और मजूदरेां को लिखित सूचना 7.10.07 को दिया जाता है। इससे ये साफ प्रतीत होता हैं कि कानून के प्रावधानों का लाभ मजदूरों को न मिले इसलिए भ्रमक सूचना दिया। ऐसे भी इसका विरोध पार्टी नेे धरना के माघ्यम से उपायुक्त हजारीबाग के पास 90.10.07 को दर्ज करवाया है।

यदि प्रखण्ड विकास पदाधिकारी की बात को मान भी ले तो क्या बन रहे सामुदायिक भवन में 45 मजदूरों का विधिवत ( मजदूर को लगातार 14 दिन रोजगार सप्ताह में 6 दिन से अधिक नहीं) तरीके से कार्य दिया जाना संभव है? जाहिर है नही इसलिए ये मजदूर बेरोजगारी भत्ता पाने के योग्य है। क्या जहां समुदायिक नई भवन बनाया जा रहा है वहां मजदूरों के लिए नरेगा क तहत उपलब्ध सुविधाएं है? यदि सुविघाएं नही है तो मजदूर वहां काम करने क्यों जाएगी इसलिए भी मजदूरेां को बेरोजगारी भत्ता पाने के हकदार है। प्रखण्ड कृषि पदाधिकारी का ये कहना है कि 12 मजदूर ’ाहर में काम करने जाते है और यह बात भी सत्य है 12 क्या 12 से ज्यादा मजूदर बाहर काम करते हैं वे लोग रोज कमाते और रोज खाते हैं

यदि एक दिन भी बैठ जाए तब उनका परिवार कैसे चलेगा गांव में रोजगार नही मिलेगा तो काम की तला’ा में ’ाहर तो जाएगे ही। नरेगा कानून का उदे्द’य ही है। पलायन रोकना और ग्रामीणों को उसके गांव में 5 कि0 मी0 के अन्दर काम उपलब्ध करवाना है। इन तमाम कारणों के साथ उपायुक्त को पत्र लिखे जा चुके किन्तु नरेगा के तहत किसी भी लोगों को बेरोजगारी भत्ता नहीं दिया गया है।

झारखण्ड में नरेगा फेल होने का बड़ा कारण पंचायत चुनाव का न होना लगता है। दुसरी ओर सरकार ने आदिवासी दलित समाज के परम्परागत सभा को मान्यता नहीं दी है। सरकारी पदाधिकारियों द्वारा ग्रामसभा का गठन किया जाता रहा है। उसके माघ्यम से नरेगा कानून को लागू करने में परे’ाानी हो रही है। जिससे लोगो को रोजगार नहीं मिल रहे है। ऐसी स्थिति में पलायन लाजमी है।