सोमवार, 29 सितंबर 2008

महिलाओं के लिए कानून बने है।

अलोका


महिलाओं के लिए 40 कानून बने है। सत्ती प्रथा से लेकर दहेज हत्या, भ्रण हत्या, डायन हत्या, से लेकर घरेलू हिंसा पर कानून बन चुकी है। ध्यान देने योग बात यह है कि लम्बे से समय से आधी आबादी ने अपने अधिकार के लिए अपनी स्वतंत्रता के लिए जो आंदोलन घर के बारह छेडे वही आंदोलन घर के अंदर नही छड पाए हैं और अधिकार और स्वतंत्रता का जो दायरा कल था वह आ भी कायम हैं। कानून अचानक से इतने बन गये किन्तु सत्ता से लेकर उच्चे पदो पर आई जरूर हैं किन्तु वहां निर्णय प्रक्रिया से दूर रखा गया हैं चाहे वह संसद से संडक, संडक से पंचायत तक और पंचायत से परिवार तक की स्थिति वही बनी रही सिर्फ शब्द बदल गये और आधी आबादी के चैखट को हिला दिया गया उसे नयी तकनीकी के साथ जोडे गये नही पूंजीवाद घर के आंगन तक उसे मानसिक और शरीरिक शोषण के लिए खडे मिलेंगे इस लिए अब लोगो का मामना हैं देश के अंदर चल रहे जितने भी स्त्री अधिकार के लिए बनाए गये कानून में महिलाओं की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है। सवाल यह उठता हैं कि घर में रहने वाली महिला जब यह कानून बनाने में योगदान नही दिया तब यह कानून किस काम कि है।

सरकारी स्कूल में बुनियादी जरूरत से बच्चे वंचित

अलोका रांची

भारत देश में सरकारी स्कूलों का भाग्य बदला नहीं जा रहा है। भाग्य को बदलने के लिए गुणवत्त "िाक्षा पर काम करने की जरूरत है। सरकारी स्कूलों के गिरतें स्तर से शक्षा के गुणकारी के स्तर का पता लगता है। सरकारी "िाक्षा के क्षेत्र में "िाक्षा को सुधारने का कोई प्रयास अब तक नहीं किया है। भारत गरीबों और मेहनतक"ा लोगों का दे"ा है। वह राज्य कृ'िा तथा जंगल प्रधान रहा है, सबसे अधिक गरीब जीवन बिताने वाले किसान, मज+दूर, आदिवासी तथा दलित लोग निवास करते है। जहां "िाक्षा नाममात्र या केवल दाखिला ही रह गया है। दाखिले का महत्वपूर्ण क्षेत्र सरकारी स्कूल ही रहें है। 80ः गरीब परिवारों के बच्चें सरकारी स्कूल में पढ़ते है। जिसमें आधे से अधिक बच्चे स्कूल आना पसंद नहीं करते है। कुछ बच्चे मध्यान भोजन के प्रचलन के कारण आते है। स्कूल न आने के कारण पता लगाने पर जानकारी मिली की उन बच्चों को स्कूल के "िाक्षक पंसन्द नहीं है। बच्चों को अंग्रेज+ी नहीं आती और "िाक्षक अंग्रेज+ी याद करने के लिए दे देते है। गणित की जानकारी मास्टर नहीं देते है। पढ़ाई में मन न लगने से किताबी चीज+ों को सही तरीकों से जान नही पाते है। मास्टर कहते है परीक्षा के समय में स्कूल ज+रूर आ जाना। बच्चों के किताबी ज्ञान को बढ़ाने के लिए मास्टर व मैडम पहल नहीं करते है। झारखंड के सुदूर गांव तथा जंगल के क्षेत्र के साथ - साथ "ाहर के सरकारी स्कूलों का स्थिति भी काफी खराब है। चुंकि झारखंड जंगल क्षेत्र में होने के कारण नक्सलियों का आ"िायाना है, जिस कारण जंगल के क्षेत्र के सरकारी स्कूल पर "िाक्षक नही आते। कई स्थानों में वहां के स्थनीय लोगों के सहयोग से स्कूल चल रहे है, लेकिन इन्हें सरकार के लोगों से मदद नहीं मिलती है। एक उदाहरण के तौर पर रांची के राजधानी से सटा तैभारा पंचायत के पानसकम गांव में नक्सलियों का डेरा होने के डर एक से पांचवीं कक्षा के स्कूल बंद पड़ गये है। जबकि कोड़दा गांव में अब मास्टर के नेतृत्व में ही स्कूल चल रहा है। सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या कम है कारण की स्कूल में बिजली, पानी, "ाौचालयों की सुविधा न होने के कारण छात्र पानी पीनें या "ाौचालय जाने के बहाने बाहर जाते है और क्लास रूम में वापस नहीं आते है। स्कूल में मनोरंजन के साधनों का अभाव है। ये अभाव बच्चों को स्कूलों से दूर कर रही है। स्कूल में पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियों से बच्चों को नहीं जोड़ा जा रहा है। सरकार के एक भी स्कूल ऐसा नहीं है जिसे "िाक्षा के गणवत्ता का कारण पहचान किया जा सके। झारखण्ड के वेब साइड में सरकार ने खुद ही अपने द्वारा चलाए जा रहे स्कूल को अच्छी श्रेणी में नहीं बता पा रहें है। जबकि उनके वेब साइट में प्राइभेट स्कूल के कई नाम अच्छी श्रेणी में दर्ज किये गये। ब्रिटि"ा ज+माने में बनें हर जिला स्कूल अपनी गरीमा को दर्"ााता था। आज+ादी के 60 सालों बाद उस जिला स्कूल की स्थिति खस्ता बन गई है। इन स्कूलों की "िाक्षा की गुणवत्ता को जानबूझ कर कमज+ोर किया गया ताकि वहां पढ़ने आने वाले आदिवासी, दलित, गरीब, विधवा के बच्चों में प्रतिभा न आ सकें। ताकि वे उच्च ओहदे की नौकरी को प्राप्त करने के सक्षम न हो सकें। झारखंड के अलग राज्य होने के बाद स्कूली क्षेत्र में लड़कों और लड़कियों में भेद किया जा रहा है। लड़कियों को स्कूल में "ाामिल करने के लिए साइकिल उपहार के रूप में दिए जा रहें है। ताकि लड़किया स्कूली "िाक्षा से वंचित न हो सकें। सरकारी स्तर पर लड़कियों के साथ भेदभाव करने से, समाज में और सरकारी स्कूल में लड़कें व लड़कियों के "िाक्षा के साथ अंतर किया जाता है। इस प्रक्रिया से लड़कियां गुणकारी "िाक्षा से दूर है क्योंकि "िाक्षा का प्राच्य व्यवस्था को बिना बदले किसी लड़की को साइकिल दान देने से "िाक्षा की गुणवत्ता में परिवर्तन के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाएं जा रहें है। सरकार खुद जि+म्मेदारी "िाक्षा को कम करने में। झारखंड सरकार ने सरकारी स्कूल के बच्चों को फेल नहीं करने की घो'ाणा की है, साथ ही यह घो'ाण कर दी हैं कि जिस स्कूल में जिस कक्षा का बच्चा फेल करेगा असके टिचर को निलंबित कर दिया जाएगा। ऐसी स्थिति में "िाक्षिकों के ऊपर दबाव बना कर पास करना ही है। ऐसी स्थिति में बच्चें को पढ़ाने और पाठयपुस्तक का अभ्यास लगातार नहीं करा पाते है। बच्चें को भी अपने पाठयपुस्तक के अभ्यास लगातार नहीं होने पर उनके दिमागी विकास सिमट कर रह जाती है। जिससे बच्चों में रचनात्मक कार्य करने की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है। यही कारण है कि सरकारी स्कूल से निकलने वाले गरीब मां बाप के बच्चें दे"ा के उच्च पदों व स्थानों के अनुभव से वंचित रह जाते है और एक दो निकल भी गये ंतो उनका कार्य सफल नहीं माना जाता है।सुझाव - बच्चों का मानसिक विकास रचनात्मक कार्यों से होता है। वह स्वंय करेगा जब उसकी काम के प्रति लगन बढ़ेगी। इससे वह खुद को जोडेगा और आसमास के लोगों को भी जानेंगा। बच्चें का विकास स्कूल के विकास से जुड़ा हुआ है। बच्चें के विकास से गांव, समाज तथा समुदाय का विकास संभव है। "िाक्षा स्वास्थ्य, पानी बिजली के साथ तकनीकि क्षेत्र के ज्ञान को बच्चों तक पहुंचाया जाए। विज्ञान से संबधित प्रयोग "ाालाओं का निर्माण सरकारी स्कूल में बच्चों को जोड़ने के काम के साथ "िाक्षा को गुणकारी बना सकता है।

सोमवार, 22 सितंबर 2008

वरिष्ठ लेखिका प्रभा खेतान नहीं रहीं

कोलकाता. 20 सितंबर 2008
सुप्रसिद्ध कथाकार डॉ. प्रभा खेतान नहीं रहीं. 66 वर्षीय प्रभा खेतान ने कल देर रात कोलकाता में अंतिम सांस ली. दो दिन पहले ही उन्हें सांस में तकलीफ की शिकायत के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था. शुक्रवार को उनकी बाईपास सर्जरी की गई थी, जिसके बाद उनकी हालत बिगड़ गई.1 नवंबर 1942 को जन्मी प्रभा खेतान ने आओ पेपे घर चलें, पीली आंधी, अपरिचित उजाले, छिन्नमस्ता, बाजार बीच बाजार के खिलाफ, उपनिवेश में स्त्री जैसी रचनाओं से हिंदी जगत में अपनी महत्वपूर्ण जगह बनाई थी.

सिमोन द बोउवा की पुस्तक ‘दि सेकेंड सेक्स’ के अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता’ ने उन्हें स्त्री विमर्श की पैरोकार के तौर पर पहचान दी. कुछ समय पहले आई उनकी आत्मकथा 'अन्या से अनन्या' को लेकर भी हिंदी साहित्य में विमर्श का एक सिलसिला शुरु हुआ था.

कोलकाता के व्यवसायी जगत में भी प्रभा खेतान ने अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई थी। वे कोलकाता चेंबर ऑफ कामर्स की पहली महिला अध्यक्ष भी रही थीं.उनकी अंत्येष्टि रविवार को कोलकाता के नीमतल्ला घाट में संपन्न होगी.

साभार रविवार से

भारत में नारी मुक्ति आंदोलन का इतिहीस

अलोका रांची

आधुनिक परिदृ श य में नारी मुक्ति का मुददा भारत में 1975 से शरू हुआ माना जा सकता हैं, जब भारत से स्त्रियों का बड़ा जत्था बर्लिन में प्रथम वि”वस्तरीय महिला कांफ्रेंस में भाग लेने गया। स्त्री मुक्ति के विभिन्न मुददे चाहे वे सती प्रथा, बाल विवाह, परदा प्रथा के हों या विधवा, तलाक सम्पति का अधिकार व स्त्री ”िाक्षा के ये सभी पहले से ही बहुत उठाए जाते रहें हैं। महारा’ट्र में ज्योतिबाफुले, सवित्रीबाईं, गुजरात में स्वामी दयानंद और बंगाल में ई”वरचंद विद्यासागर, राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द ने स्त्रियों के सामाजिक अधिकारों के पक्ष में अभियान छेड़ दिया था। इनसे भी बहुत पहले इतिहास पर दृ’िट डाले तो गौतम बुद्ध द्वारा आश्रम में स्त्रियों को प्रवे”ा देना और स्त्रियों का उद्रभव भी परिवार और समाज के उत्पीड़न के विरूद्ध खड़ी स्त्रियों की मुहिम ही मानी जाएगी। इन्होंने धर्मकी चैखट को या कहा जाए धार्मिक दुर्ग की दीवारों को तोड़ या लांघ कर उसमें प्रवे”ा या हस्तक्षेप करने की पहल की थी। प”िचम में ये मुहिम औद्योगिक क्रांति से “ाुरू हुई। भारत में उस रूप में उस रूप में तो नहीं लेकिन गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन ने स्त्रियों को घर परिवार के बाहर निकालकर दे”ा के लिए आंदोलन करने और परिवार के दायरे की बजाएं, दे”ा के दायरे तक उनकी सोच को विस्तृत करने में एक बहुत बड़ी भूमिका निभाई या यूं कहा जाएं कि स्त्री को माॅं, बहन, पत्नी और प्रेमिका की भूमिका से निकलकर दे”ा के नागरिक की हैसियत हासिल करने की राह दिखाई। स्त्री मुक्ति की तरफ ये एक बहुत बड़ा कदम था। हालांकि आज्+ाादी की सिपाही या दे”ा की नागरिक बनी यह स्त्री, परंपराओं से मुक्त नहीं हो सकी थी लेकिन ये घर और परिवार की दीवारें तोड़ने में सफल हो गई थी। ये मुहिम उसकी राजनैतिक मुक्ति थी। गीता बहन, लक्ष्मी सहगल, अरूणा आसफ अली, कस्तूरबा, सरोजनी नायडू, कमला नेहरू, प्रियम्बदा और असंख्य सत्यग्रही महिलाएं इसकी मिसाल है। साहित्यकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर उपन्यासों, कहानियों व कविताओं में ऐसे स्त्री पात्रों को स्वतंत्र इकाई के रूप में पे”ा किया, जो बौद्धिकता, सामाजिकता तथा वैचारिकता के स्तर पर पुरू’ाों से केवल बहस ही नहीं करती थी बल्कि वे जुझारू होने के साथ-साथ यौन संबंधों में भी अपने निर्णय रूढि़यों के खिलाफ जाकर लेने लगी थी। बंगाल में रवंीन्द्रनाथ टैगोर की गीतंाजली के भावपूर्ण गीतों पर स्त्रियों स्वंय गाने व नृत्य करने लगी थी। वे प्रकृति और प्रेम जो पहले वर्जित थे के गीत मुक्त रूप से गाने लगी थीं। बंगला साहित्य के “ारतचंद्र, श्रीकंात, आ”ाापूर्णा देवी ने जहां कमला व लक्ष्मी को खड़ा किया, वहीं उर्दू में तस्लीमा और कुर्तूल ऐन हैदर ने स्त्री अस्मिता को एक अलग रूप दिया।स्त्री मुक्ति की अवधारणा भिन्न-भिन्न समाजों में, विकास के भिन्न-भिन्न स्तर व भौगोलिक परिस्थितियों के कारण भी अलग-अलग होती है। आज भी “ाहरी इलाकों में जहां मध्यमवर्गीय मानसिकता या अमिरजात व सवर्ण दृ’िटकोण, बौद्धिकता के भिन्न-भ्न्नि स्तर होने के कारण मुक्ति के भिन्न-भिन्न सपने पालता है, वहीं सर्वहारा वर्ग या तथाकथित निम्न जातीय समाज की स्त्रियां खुद खटने कमाने वाली पर आर्थिक रूप से कमज+ोर होने पर भी, स्वावलंबी होने के कारण मध्यवर्गीय स्त्रियों से उनका मुक्ति का सपना भिन्न होता है। इन बर्ग में उन्हें काम करने की स्वतंत्रता है। जि+न्दा रहने हेतु काम करना उनकी ज+रूरत ही नहीं मजबूरी भी है। मध्यवर्गीय मानसिकता वाले परिवारों की तरह नौकरी अथवा मज+दूरी करने में उनकी प्रति’ठा को बटटा नहीं लगता। चुंकि उनके समाज में और खटने कमाने वाला हाथ होते है - केवल खानेवाला परजीवी मुंह नहीं
आदिवासी समाज आदिवासी समाज भले सभ्य समाज के तथाकथित परिकृ’ट संस्कारों से लैस नहीं पर वहां स्त्री दासी नहीं है। प्रेम तथा विवाह करने अथवा बाहर जाकर खुद से खटने कमाने और स्वावलंबी बनने को स्वतंत्र है। वहीं कोई बच्चा हरामी नहीं माना जाता है। वहीं विवाह इतना जड़ नहीं है। वहीं रि”ता गति”ाील है वह बनता है - टूटता है - फिर जुड़ जाता है। यानि काफी सहज है। औरत की अपनी इच्छा भी इस व्यवस्था में रची बसी होती है। वै”वीकरण व बाज+ारवाद के चलते स्त्रियां वस्तु बनती जा रही है। इस पर कुछ दूर तक सहमत करते हुए वे कब वस्तु नहीं थी, वे तो घर परिवार और समाज की नज+रों में वस्तु ही थी। वे खुद को वस्तु की ही तरह पति व तरिवार के लिए सजती संवरती थी। आज घर का दायरा टूटकर बाज+ार तक पहुंच गया है। पहले भी ये दरबारों, भक्त मंण्डलियों या साधु संतों तक जाता था। कौन नहीं जानता की राजा - महराजा स्त्रियों को वि’ाकन्या बनाकर दूसरे राज्यों में भेजकर राजाओं की हत्या करवाते थे। इन्द्र ने मेनका का उपयोग वि”वामित्र का तप भंग करने के लिए किया था। आखिर क्या समझकर एक सुंदरी को हथियार या औज+ार माना गया? इन सब के बावजूद इन स्त्रियों को न समाज ने, न इतिहास ने योद्धा माना और न ही “ाहीद कहा उनकी विरूद्ध बालियां भी नहीं गायी गयी। अनेक मिथक इसके साक्षी है कि भारतीय मानस में स्त्री सदैव एक वस्तु ही रही, चाहे घर हो, धर्म या सत्ता के गलियारे या बाज+ारों के कोठे। बल्कि आज स्त्री खुद को मनु’य मानने और मनवाने की मुहिम में सक्रिय हुई है। जहां बाज+ार व वै”वीकरण उसे विज्ञापन तो बना रहा है पर वही वह वै”वीकरण उसे वि”व के पैमाने पर एक सूत्र में जोड़कर स्त्री को स्त्री के नाते अस्मिता मजबूत करने का अवसर भी दे रहा है। झारखंड के आदिवासी समाज में स्त्री को हल जोतने की मनाही है। अगर वह हल जोत ले तो दंडस्वरूप बैल की तरह उसी को बैल बनाकर भूसा खिलाया जाता है और कंधे पर हल डालकर उससे खेत जुतवाया जाता है। इसी प्रकार छत (घर का छपर छाने) डाल लेने पर स्त्री का मुंह काला करके, सिर मुंडवाकर पूरे गांव में घुमाया जाता है। स्त्री को धनु’ा छूने का भी अधिकार नही है। हालांकि महेतास में जब - जब आदिवासी पुरू’ा पीकर बेहो”ा थे तो औरतों ने धनु’ा चलाया और तीन बार मुगल आक्रमणकारियों को परास्त किया था।

रविवार, 21 सितंबर 2008

सफदर समूह का काम

अलोक
सफदर अपने तीन साल के दौरान कला और संस्कृति को बढावा देने के लिए तत्पर रहा है। विगत 2006 से सफदर ने रांची के कई गांवो में लगातार कला और संस्कृति के लिए कार्यक्रम का आयोजन किया। जिसमें सबसे पहले रांची के निकट सिदरौल गांव में गांव के बच्चों एवं युवा युवतियों के द्वारा पेटिंग के क्षेत्र में बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रम 2006 में किया इस साल बुडमू ब्लाॅक के बाडे गांव में पेंटिग और संगीत का कार्य क्रम किया गया। साथ ही जम’ोदपूर में जाकिर हुसैन इस्टीच्यूट जम’ोदपूर में भारत के आजादी के 60 साल में छात्रा की नजर में भारत को कैसे देखते इस पर पेंटिग कार्यक्रम का आयोजन किया गया जिसमें लगभग 500 लोगो को कला से जोड़ने का काम किया गया। 2007 के मार्च में बुण्डू के पान सकम गांव गांव के बच्चों के साथ संगीत और पेंटिग का कार्यक्रम चलाया गया गया। इसी साल कुटे गांव जगरनाथ पूर में लगभग 6 महिने तक गांव के बच्चों के साथ गीत संगीत और पेंटिग के लिए स्कूल का आयोजन किया गया जिसमे गांव के बच्चे के साथ युवा समूह एंव उनके माता पिता सभी भाग लिए साथ ही बेडो ब्लाक के कपरिया गांव में 2साल तक परम्परागत कहानी और गीत लघु कथा पर क्रार्याक्रम चलाया गया जिसमे 15 गांव के लोग भाग लेते रहे। 2007 में गुमला के पलायन के लेकर एकदिवसीय कार्यक्रम का आयोजन किया गया इस कार्यक्रम में सी एल डब्लू के ’िावानी भारद्वाज एवं स्वतंत्र पत्रकार सुजाता ने इस कार्यक्रम में भाग ली। जिसका विषय था पलायन करने से संस्कृति पर प्रभाव जिसमे गुमला के जिला से महिला और पुरूषों ने भाग लिया।2008 में सफदर ने नरेगा कानून पर एक ’ाोध किया। ’ाोध का मूल कारण है बढ़ती बेरोजगारी और पलायन पर महिलाओं भूमिका जिसमें गांव के कई महिला समूह ने भाग लिया और बताया कि नरेगा के तहत महिलाओं के साथ भेद भाव किया जा रहा है। महिलाएं काम पाना चाहती है किन्तु काम के रूप में सिर्फ पुरूषों को जोड़ा जाता रहा है। सफदर सचिव अलोका एच बी रोड़ थड़पखना रांची 843001

पंचायत चुनावों में महिलाओं

aloka


देश में सम्पन्न हुए पंचायत चुनावों में महिलाओं ने जिस तरह पर्दा और चहारदीवारी से निकल कर बढ़-चढ़ कर भागीदारी निभाई है उससे यह तो साबित ही हो गया है कि महिलाएं भी अब अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुई हैं, उनमें आत्मविश्वास बढ़ा है और नए साहस से लवरेज नजर आने लगी हैं। उनमें अपार ऊर्जा का संचार हुआ है। पंचायत चुनावों में चयनित महिलाएं अब पुरुषों पर निर्भर नहीं रहना चाहती हैं। वे आत्मविश्वास के साथ अपने सभी कामों को स्वयं अपने बलबूते पर करना चाहती हैं। साथ ही वे अपने काम का आकलन भी जरूरी समझती हैं। आरक्षण की बिना पर ही महिलाएं पंचायत चुनावों में नए कीर्तिमान के साथ उभर कर आई हैं। यद्यपि प्रत्येक चुनाव की तरह ही इन चुनावों में भी धन की भूमिका काफी अहम रही फिर भी पैसे के अभाव में भी चुनाव जीतने के कीर्तिमान स्थापित हुए हैं। बिहार के कटिहार जिले के बलरामपुर ब्लाॅक में कीरोरा पंचायत में एक भिखारिन हलीमा खातून मुखिया निर्वाचित हो गई हैं। इसी प्रकार पूर्णिया जिले में भी चाय का ठेला लगाने वाली शांति देवी भी पंचायत सदस्य चुनी गई हैं।
पंचायत चुनावों में नवनिर्वाचित महिलाएं यद्यपि पूरी तरह से उर्जान्वित हैं अब देखना यह है कि रचनात्मक रूप में इस ऊर्जा का किस हद तक उपयोग हो पाता है; क्योंकि क्षेत्र पंचायत में काम करने के दौरान नई-नई कठिनाईयों एवं बाधाओं से जूझना पड़ेगा, और वे उन कठिनाइयों और बाधाओं से जूझने में किस हद तक सफल हो पाएंगी। और फिर उन हालातों में जब पंचायत चुनावों में निर्वाचित होकर जन सेवा करने का भाव गायब होता जा रहा हो और चैधराहट दिखाने की भावना बल पकड़ती जा रही हो।
ग्राम पंचायतों में ग्राम प्रधानों व सेक्रेेटरियों की पौ-बारह है। ग्राम पंचायतों में हो रही धांधलियों पर शिकायत के बावजूद मिलीभगत के चलते प्रशासन द्वारा कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जिसकी वजह से ग्राम प्रधान सेक्रेटरी के साथ मिल कर अपनी मनमानी कर रहे हैं। देश की तमाम ग्राम पंचायतों से विधवा पेंशन, रोजगार गारंटी योजना के जाॅबकार्ड, मिड-डे मील वितरण तथा बीपीएल राशनकार्ड बनाने के तौरतरीकों में हो रही धांधलियों की शिकायत आने के बावजूद उनके निस्तारण पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कुछ ऐसे संकेत मिले हैं कि तमाम जगह तो दंबगई और चैधराहट के चलते ग्राम प्रधान और सेक्रेटरियों की शिकायत करने का साहस तक नहीं जुटा पा रहे हैं। अगर कोई शिकायत करता भी है तो उनकी शिकायत को तरजीह देने के बजाय टरकाऊ लहजे से टाल दिया जाता है।
आज हमारा समाज एक बदलाव के दौर से गुजर रहा है। लगभग 61 वर्’ाों के “ाांत सुगम परिवर्तन की प्रक्रिया के बाद महिलाओं को अपने गांव की पंचायत में मजबूती से खड़ा होने का मौका मिला है। जिससे समाज में गुणवत्ता परिवर्तन आया है। भारत के एक दो राज्य के छोड़ कर लगभग सभी राज्यों के पंचायतों में महिलाओं की भूमिका मजबूती के साथ बनती जा रही है। जिससे गांव के अन्दर स्वास्थ्य और ”िाक्षा में मजबूती से काम चल रहा है। जहां-जहां महिला पंचायत के रूप में चुनाव जीत कर आई, उस गांव के परिदृ”य बदलने लगा। हर गांव में सही क्षा का सवाल प्रमुखता से लिया जाने लगा है। समाज कल्याण, परिवार कल्याण और जन-स्वास्थ्य पर पंचायत जिम्मेवारी लेने लगी है।

शनिवार, 20 सितंबर 2008

एक और महिला संगठन बनाना जरूरी क्यों ?

महिलाओं को आधार बना कर अनेकों संगठन पहले से हैं किन्तु उन संगठनों को महिलाओं ने अपनी आव’यकता को देख कर नहीं बनाया बल्कि दुसरे संगठन में एक विग के रूप में महिलाओं का होना तय किया गया। आज तक भारत में जितने भी महिला संगठन हैं वह किसी न किसी संगठन के अधीन बना है। अधिन वाली स्थिति लगातार बनी हुई है। महिलाओं को कभी भी एक वर्ग के रूप में नहीं देखा गया है। अब तक के भारतीय समाज में औरतों के लिए जो ढांचा समाज ने बनाया है महिलाएं उसके अधिन हैं। हमारे समाज का ढांचा पूर्व में सामंती अर्थव्यवस्था आधारित था और अब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था आधारित हैं. क्योंकि इस व्यवस्था की वैचारिक स्थिति भी होती हैै जो समाज के व्यक्ति को उस व्यवस्था के लायक बनाता है। जिसके कारण पुरूषों की तरह इस समाजिक ढांचा में महिलायें भी रहने की आदि हो गयी हैं। लम्बे समय से अधिन रहने कि प्रक्रिया में नये संगठन को बनाना और उसके रूप-स्वरूप पर विचार करना महत्वपूर्ण है। हर बार नये संगठन बनते और कमजोर होते रहें हैं, इस पर विचार करने की जरूरत है। महिला संगठन या आंदोलन के कमजोर होने के मूल कारण जो हमारे सामने स्पष्ट हैं वह है वर्ग के बाहर अब तक महिलाओं को देखा गया है, महिलाओं को अस्मिता के रूप में देखा गया है। जबकि सही तरीके से देखें तो हमारे समाज में उत्पादन और उत्पादन के संबध के साथ जुडे हुए समाज में लैगिक भेद हैं। समाज में उत्पादन में दो तरह के संबध है। 1. उत्पादन के साधन का मलिक होना और 2. उत्पादन के साधनों के मलिकों द्वारा ’ाोषित होना, जिनके श्रम को खरीदा जाता है, यानि मेहनतक’ा। इस आधार पर औरत कहीं भी उत्पादन के साधन की मलिक नहीं है(एक दृष्टि है)। भारतीय समाज में जातिय संरचना है जहां उत्पादन के साधन से महिला से वंचित है। उत्पादन के साधन हंै-जमीन, म’ाीन, फैक्ट्री, आदि। समाज में दो तरह के उत्पादन है -ः 1. अतिरिक्त ( बे’ा) मूल्यः मानव श्रम ’ाक्ति से अतिरिक्त ( बे’ा) मूल्य पैदा होता है। जिससे पूंजीपतियों का विकास होता है। पूंजीवादी संबधांे का विकास होता है और‘’ाोषण की व्यापकता होती जाती है। 2. पूर्णउत्पादन ;तमचतवकनबजपवदद्धरू एक मजदूर अपने औरत के साथ एक मजदूर पैदा करता है। इस हिसाब से समाज, राज्य, राष्ट्र में वह सबसे नीचले पायदान पर है, एक निचले तबके की है और पूंजीवादी समाज में सबसे नीचला तबका श्रम करने वालों का होता है। पंूजीवादी विचार के खिलाफ क्रांतिकारी विचार के आधार पर संगठन न तो बनाने दिया जाता है और न हीं बनाया जाता है। आज तक जितने भी संगठन बने हंै एकल आधार पर ही बनता है- जाति, लैंगिक, मजदूर, आदि का संगठन बनता है। समग्र रूप से देखंे तो महिला आंदोलन एकलवादी आंदोलन है। वर्ग के आधार पर कभी संगठन नहीं बना है। महिला संगठन लैंगिक आधार पर बनता है वर्ग के आधार पर नहीं बनाया जाता है। यदि वर्ग के आधार पर संगठन बनाते, तब आजादी के 60 सालों में महिलाओं की राजनीतिक पार्टियों में महत्वपूर्ण भूमिका होती और महिलाएं नेतृत्व में बहुतायत की संख्या में होती।महिलाओं के लैंगिक-दैहिक ’ाोषण सामंती-पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था के कारण है। यूरोप के दे’ाों में पढ़ी-लिखी औरतों ने अपना संगठन बनाया, जिसमें महत्वपूर्ण नेता ‘सिमाॅन दी वाॅ’ ने भी नहीं समझीं और वह भी लैंगिक आधार पर संगठन बनाती रहीं। उन्होंने इस बात पर घ्यान नहीं दिया। उनकी पुस्तक दी सेकेण्ड सेक्स में उन्होंने यह स्वीकार करते हुए कहा है कि वे पुरूषांे के अधिन हैं। लेकिन समाज मुक्ति-आन्दोलन के लिए किसी आन्दोलन व संगठन को लैंगिक आधार पर आदमी और औरत में बांटा नहीं जा सकता। इससे समाज के मुक्ति-आन्दोलन के संघर्ष को आगे बढ़ाया नहीं जा सकता और मुक्ति-संघर्ष को उच्च स्तर पर नहीं पहुंचाया जा सकता है। यूरोप में औरतों के आन्दोलन औरतों पर आधारित पुस्तकों, फिल्मों, संगीत की ओर जाने वाला दृष्टिकोण या फिर मोटे तौर पर सांस्कृतिक आधार पर ही रह गये। ‘सिमोन’ कोई छोटी-मोटी बुद्विजीवी नहीं थीं। लेकिन अपने मध्यवर्ग स्थिति के कारण अपने किताब में वर्ग की बात नहीं की। भारत में महिलाओं को जात के आधार पर बांट दिया गया (सबसे निचले स्तर के जातियों के परिवारों में महिलाएं ’ाोषत होती है) । आज तक जितने भी महिला संगठन हैं वह किसी न किसी राजनीति पार्टी के अधिन ही रही हैं। उसका अपना स्वतंत्र समूह बनने नहीं दिया गया है जो अपने वर्ग ‘ मेहनतकश वर्ग ’ के साथ जुड़ कर अपने मुक्ति के संघर्ष को उच्च स्तर पर पहुंचा कर शोषण के इस व्यवस्था को समाप्त करके एक शोषण -मुक्त व्यवस्था बना सके।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

ओखला फ्लड से महिला की मूउट


this is a snaps of lady who has recently died because of flood in Okhla

सोमवार, 18 अगस्त 2008

झारखण्ड की पहली पडहा राजा मुक्ता होरों

अलोका

एन.एफ. आई और ए. आई एफ के तहत फेलोसिप के तहत शोध

झारखण्ड मे पंचायत चुनाव न होने से वहां पंचायती राज व्यवस्था का अस्तित्व खतरे में है। जहां पूरानी परंपरागत स्व’ाासन व्यवस्था की एक मजबूत कड़ी का नाम पड़हा व्यवस्था है। इस व्यवस्था के द्वारा मुक्ता होरो ने अपने जनस्वश्स्छ असं व्यवस्था के अन्तगर्त कई काम करते आ रही है। 14 गांव धीरे -धीरे विकास की प्रगति के पथ पर अग्रसर है। वही गांव से पूरे दुनिया को संदे’ा के रूप में राजधानी रांची से नजदीक बुण्डू ब्लाॅक के पानसकम गांव की महिला मुक्ता होरो लोकतंात्रिक प्रणाली की उपज है।
झारखण्ड की विभिन्न आदिवासी समुदायों के बीच आज भी अलग- अलग परम्परागत स्वा’ाासन व्यवस्था अस्तित्व में है। इन्हीं व्यवस्थाओं में पड़हा व्यवस्था प्रमुख है। 14 गांवो को मिला कर पड़हा का गठन किया जाता है। यानि हर गांव के ग्राम प्रधान को मिला कर पड़हा का चुनाव होता है। यह व्यवस्था मूलतः आदिवासी क्षेत्रों में होता है। पड़हा राजा पद पर वर्षो से पुरूषों का सत्ता कायम की है। किन्तु अब इस पद पर महिलाएं भी चुन कर आ रही है परम्परागत व्यवस्था को अधिक लोकतांत्रिक बनाने की दि’ाा में सकारात्मक है। पड़ाह सभा में प्रत्येक गांव के प्रत्येक पंचायत से दो लोग प्रतिनिधि ‘’ामिल होते है। गांव सभा सहमति के आधार पर प्रतिनिधियों का चयन करती है। उनका कार्यकाल 6 साल का होता है। परन्तु हर साल के ‘’ाुक्र में प्रत्येक प्रतिनिधि गांव सभा के सलाना सभा या जलसे के सामने अपने कार्य का व्यौरा रखते है।उसके आधार पर गांव सभा फैसला लेती है। सलाना जलसे में या बीच में किसी भी समय गांव सभा का विस्तार करने की हालत में संबंधित व्यक्ति की सदस्यता अपने- आप समाप्त मानी जाती हैं जहां क इस व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी का सवाल है। तैमारा पंचायत में महिलाओं को एक तिहाई बहुमत 12 साल पहले से प्राप्त है। वहां पड़हा राजा द्वारा खुले रूप से लोकतंत्र के सिद्वांतों का सम्मान किया जाता है। मुक्ता होरों के नेतृत्व वाले पड़हा सभा में गांव की समस्या सड़क, पानी जंगल, ’िाक्षा, स्वास्थ्य, विवाह, बाजार तथा युवा - युवतियों की समस्याओं पर चर्चा कर उनके समाधान व विकल्पों की जला’ा की जाती है। इसके अन्तगर्त तैमारा पंचायत के अन्तगर्त सभी गंाव कोनेगा, मुनीडीह, हुसरीहातू, लबगा, कोड़दा, हाॅंजेद, बेड़ा, पानसकम, आडाडीह, लोआहातू, तैमारा, और अन्य गांव है। इन गांव की कुल आबादी लगभग 16 हजार से अधिक है। इस पदर पर 5 सालों से कार्यरत्त मुक्ता होरो ने बताया कि ’िाक्षा के प्रति गांव वाले ज्यादा सचेत है। हर गांव में एक सरकारी स्कूल हे जिसमें सातवी कलास तक की पढ़ाई होती है। हर गांव का लगभग हर बच्चा स्कुुल जाता है। यदि एक बच्चा सप्ताह भर स्कूल नहीं जाने पर गांव में बैइक हो जाती है। गांव में मैट्रिक की पढ़ाई के बाद बुण्डू काॅलेज जाते है। आवगमन का साधन नही करने के कारण काॅलेज की पढ़ाई में कम लोग जाते है। पढ़ाई के बाद सरकारी नौकरी की आ’ाा है। खेती का स्थान पहले से ही बना हुआ है। जंगल की रक्षा प्रमुख रूप सेे किए जा रहे है। यह पूरा गांव मूख्यतः खेती और जंगल पर आधारित है। पहले की अपेक्षा जंगल की स्थिति में परिवत्र्तन आई है। अतः जंगल बचाने के लिए वि’ोष जोर दिया जा रहा है। जंगल के फल- फुल पत्ती, डाल, जड़ी, बुटी का उपयोग अपने जीवन में करते हैं। गांव की एक महिला बीड़ा मुण्डा ने कही जंगल का घनत्व कम हुआ है। लेकिन यदि इसे बचाया जाएगा तब हम पुर्णः पुराने जंगल की प्राप्ती कर सकते है। तैमारा के ग्रामीण तारालाल सिंह मुण्डा ने कहते हे। गांव सभा ने पड़हा राजा महिला को बनाने से गांव समाज में साकारत्मक परिवत्र्तन आया है। महिला महत्वपूर्ण पद पर आकर निर्णय लेती हे तब चुल्हा चैका से लेकर खेती- बारी और समाज के सभी लोग मूल रूप् से घ्यान दिया जाता है। उनके अनुसार स्वच्छ और स्वस्थ्य परिवार ही समाज के नव निर्माण में भाग ले सकता है। वह गांव में सरकारी योजना से लोगा लाभ नहीं उठा पा रहें हैं। गांव में एकता के बल पर ज्ञान और जानकारी बांट रहे है। दीप थोड़ा ही सही जलाने ने की को’िा’ा की जा रही है।

झारखंड इन्साइक्लोपीडिया

ःएक नजर
झारखण्ड के ’वेत - ’याम तस्वीर को अपनी सीमाओं के साथ ‘झारखण्ड इन्साइक्लोपीडिया ’ में प्रस्तुत किया गया है। इस इन्साइक्लोपीडिया के बारे में दो बाते अलग से घ्यान दिये जाने योग्य है। पहला सम्मावतः किसी राज्य का यह पहला इन्साइक्लापीडिया है और दूसरा, यह काम सरकारी संस्था के द्वारा न किया जाकर एक सरोकारों वाले प्र’ाासनिक अधिकारी के द्वारा किया गया है। झारखण्ड इन्साइक्लोपीडिया के चार खंडों में कुल 122 लेख संकलित हें जो कुल 1564 पृष्ठों पर फैले है।

बुधवार, 13 अगस्त 2008


बर्ड फुलू से ज्यादा मलेरिया से होती हैं मौत


अलोका
एन. एफ. आई. एवं ए. आई. एफ फेलो’िाप के तहत

झारखण्ड में ब्र्ड फूलू 2007, मलेरिया हर साल -ः पूरे दे’ा में मुर्गी - मुगी मारने का आदे’ा आ गया में ब्र्ड फुलू बीमारी भारत के उन गांव तक पहुंच गयी जहां तक विदे’ाी कम्पनी अपना पैर पसार रही है। यह ऐसी बीमारी है जिससे ग्रामीण क्षेत्र के मुरगे - मुरगी, बत्तख की बिमारी से ज्यादा गांव की परम्परागत लघु उद्योग को समाप्त करने की को’िा’ा है। यह बिमारी से ग्रसीत इलाका भारत का आदिवासी गांव होते है। जहां किसान कें परिवार छोटे मात्रा में प’ाु- पक्षी को घन के रूप में पालते है। मलेरिया भारत के गांव और ’ाहर तमाम स्थानों में फैली हुई है। हर साल मलेरिया से मरने वाले लोगो की संख्या हजारों- हजार है।

यह उस परिवार के लिए छोटा आय को स्रोत रहा है। पूरा का पूरा भारत के गांव में पशु- पक्षी पालने की अपनी अलग परम्परा रही है। मुरगे- मुरगी, भोजन में खाने की पद्वित भी आदिवासी गांव का ही रिवाज रहा। वक्त बदलने के साथ-साथ अन्य समाज के लोगो की पसंदीदा भोजन में मुरगे - मुरगी, खाने का प्रचलन काफी बढ़ गया और वह एक बड़े बाजार mane तबदील होते चले गये यही नही वि’व स्तर पर यह भोजन (चिकन खाने वाले की संख्या में इजाफा हुआ) प्रचलित हो गये जिससे बाजार में मांग के साथ- साथ व्यवसाय भी बन गये।

जहां- जहां बड़ा बाजार पहुचा वहां- वहां भारी संख्या में गरीबों के लधु उद्योग को धक्का लगा वक्त के साथ भोजन के अन्दाज बदले और यह बाजार व्यापक रूप में सिर्फ भारत ही नहीं पूरी दुनिया में फैल गया। चिकन खाने वाले की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। किन्तु अपने परम्परागत प’ाु- पक्षी की परम्परा में थोड़ा बदलाव आया गांव में मुर्गी पालन को पहले के अपेक्षा ज्यादा हुई हैं किन्तु उसकी बड़ी बाजार गांव के हाट होते हैं इस हाट परम्परागत मुर्गे मुर्गीयां बेचे जाती थी। धीरे- धीरे यह बाजार में दे’ाी मुर्गी के स्थान पर बॅायेलर ने जगह लेना ’ाुरू ही नही किया बल्कि उसे दे’ाी बाजार उच्ची दाम पर मुर्गे बेचे जाने लगी। और दे’ाी बाजार पर कब्जा होता चला गया। बडे बाजार ने गांव की आर्थिक व्यवस्था को काफी धका पहुंचाया। गांव के इस प’ाुधन के सामने आर्थिक संकट को देखते हुए मिडिया ने इस ब्र्ड फुलू बीमारी का जबर्दस्त कवरेज दिया। पूरे दे’ा में मुर्गी मारने की खबर अखबारों टी बी में लगातार आने लगे लाखों करोड़ मुर्गी को मार डाला गया। जंगल के किनारे बसे गांव के मुर्गे- मुर्गी को मार कर खतम करने की को’िा’ा की गयी ताकि एक भी परम्परागत मुर्गीयां ना रहे।


गांव में धुमने के क्रम में देखे कि गांव में मुर्गो की बांग नही हो रही हैं कारण पुछने पर पता चला कि गांव के सभी मुर्गी को मार दिया गया हैं। वन गांव के निवासी मणि सिंह मुण्डा ने बताया कि इस बिमारी से मुर्गी मार कर गांव की अर्थ व्यवस्था को तोड दिया गया, उन्होंने बताया कि ब्र्ड फुलू आज से 60 साल पहले नही थी। आदिवासी क्षेत्रो में इस तरह कि बीमारियां नही थी अचानक से को बिमारी उत्पन्न कर गांव के सारे पक्षी को मार डालने की साजि’ा है। हमारे समाज में सामुहिकता का जीवन जीते है। प’ाु- पक्षी भी हमारे कष्ट के दिनों में सहयोगी होते है। अचानक जिस बीमारी का परकोप हमारे गांव में पड़ा उससे लगता है कि अब पैकेट में बंद कर खाना आ रहा जिससे हमारे परम्परागत भोजन को समाप्त करने की योजना है। हमारे यहां गांव में छोटे - छोटे स्थानिय बाजार होते है। मानव आव’यकता के चीजे अपने क्षमता के अनुसार अपने घर में रखते है। उसे समाप्त कर प’चात दे’ाो के प’ाु- पक्षी का बाजार फैलाने की जो योजना चल रही। इसका सबसे बड़ा कारण है ब्र्ड फुलू पुरखा के समय में मुर्गी नही मारा जाता था। आज बाजार इतनी हावी हो गये है कि हमारी स्थानिय बाजार को समाप्त कर हमें पंगु बना देना चाहते है। आज भी भारत का गांव अपने श्रम और अपने परम्परागत चीजों के साथ जीवित है। अन्तराष्ट्रीय बाजार की अफवाह में की मार यदि कोई उठाता है तो वह हैं ग्रामीण लोक अर्थव्यवस्था

अड़की के पंचायत के पड़ाह राजा, और समाजिक कार्यकत्र्र्ता पौलूस हेम्बम ने बताया कि हमारे दे’ा में ब्र्ड फुलू से भी खतरनाक बीमारी मलेरिया है। आज तक हमारे गांव से ब्र्ड फुलू बीमारी से एक व्यक्ति की भी मौत नहीं हुई है। जबकि मलेरिया से लाखों लोगो की जान जा चुकी है। इस मौत की खबर अखबार में स्थानिय स्तर पर आते है। मलेरिया को लेकर पूरे दे’ा का अखबार कभी नही लिखे। जबकि ब्र्ड फुलू बीमारी बाजार के साथ जुड़ी है। जिस कारण इसे पूरे दे’ा के मीडिया ने स्थान दिया। मलेरिया को लेकर जिस तरीके से गांव में काम होना चाहिए नही हो पा रहा। जंगल के अंदर रहने वाले आदिवासी@ दलित समाज इस बिमारी के ’िाकार है। गांव से अस्पताल की दूरी इतनी होती है कि मरीज वहां चल कर जा नही पाएगा। अवगमन का साधन आज भी कई गांव में नही हैं मानव के उपर और प’ाु- पक्षी जानवरों के उपर जिस तरह से हमला हो रहा हैं उससे बाजार की पंजी खेल हैं हमारी चीजे कैसे नष्ट हो इसकी चाहत ताकतवर दे’ा चाहते है।

हर काम दूसरे के लिए करते मिडि़या बाजार के अनुरूप काम करती, ब्र्ड फुलू प’िचम दे’ाों के लिए काम रही है। भारत दुसरे दे’ा के लिए काम कर रही हैं
हमारे यहां बाजार के अनुरूप मिडिया काम करती है। प’िचम दे’ाो के ढ़ाचाों को मजबूत करने का कार्य करती रही है। कुछ ऐसी बिमारियां है जिनका संबध दूषित पेयजल से है और जो प्रतिवर्ष लाखों करोड़ा मौता के लिए जिम्मेदार है। इस तरह की बीमारियों के लिए विदे’ाी पूंजी सहायता प्राप्त करना काफी कठिन है इन बीमारियों में मुख्य रूप से डायरिया, पेचि’ा टाइफाइड हैजा और टी.बी है मलेरिया सहित पानी से संबंधित कई बीमारियां प्रति वर्ष हजारों लोगो की जाने लेती है।

व्यापक स्तर पर देखे तो भारत के गांव @’ाहर के हर व्यक्ति दूषित पेयजल का ’िाकार है। डायरिया से मरने वाला व्यक्ति भारत के गांव का होता है। कुष्ट रोग का ’िाकार भारत के ग्रामीण क्षेत्र के लोग होते है। करोड़ो बच्चे और महिला कुपोषण के ’िाकार है। भुख से मरने वाले लोग भारत के गांव में है। जन स्वास्थ्य पर जो पैसा र्खच होता है। उसका 98 प्रति’ात पैसा लोग खुद बहन करते है। गांवो में अस्पताल है। किन्तु वहां डाक्टर नहीं है। दवाईयां नही है। गांव के स्तर पर जो बिमारियां है। उसका इलाज ’ाहर या महानगरों में होता है। जिन बिमारियों का जिक्र कर रही हूं वह बिमारियां में अस्पताल के साथ - साथ डाक्टर और नर्स एवं विस्तर, अन्य अस्पताल की सुविधाएं होनी चाहिए वह नही है। बिमारी से पीडि़त लोग ’ाहर इलाज कराने आ जाने के क्रम मे कई लोगो की मौत हो जाती है जो बच गया वह आर्थिक रूप से इतना कमजोर हो जाता कि वह अपनी स्थिति से लम्बे समय से उबर नही पाता वह अलात काफी मंहगा होता हैं। इस इलाज के लिए उन्हे खेत बंधक में रखना पड़ता है।

रांची के बुडमू ब्लाक के मरूपीड़ी गांव के सतेन्द्र यादव एक समाजिक कार्यकर्ता है के बहन के पति बबलू की मौत मस्तिष्क मलेरिया के होने से हो चुकी वह एक किसान परिवार का था उनके परिवार ने उसे मांडर के अस्पताल में भरती कराये किन्तु उस अस्पताल ने उसे राजेन्द्र मेडिकल अस्पताल भेज दिया जहां उचित इलाज के अभाव में मौत हो गयी। सतेन्द्र यादव बताते हैं मलेरिया के लिए सरकारी अस्पताल में कोई व्यवस्था नही। मलेरिया हो जाने पर जोडि़स या टाइफाइड हो जाते है मलेरिया के किटानू ख्ूान में होते है। जिससे लोगो के ’ारीर में खून की कमी हो जाती हैं सरकारी अस्पताल में खून की व्यवस्था नही हैं। मस्तिष्क मलेरिया में कीड़नी काम नही करने जिसके लिए डायनोसिस की व्यवस्था होनी चाहिए वह भी नहीं है। जब राजधानी से मात्र 30 कि0 मी0 की दुरी पर बना मांडर अस्पताल में जो छोटानापूर के प’िचम क्षेत्र के गांव मुड़मा, माण्डर, बुडमू, ठाकूर गांव, चान्हों के लोग आते हैं। यह क्षेत्र आदिवासी और जंगल से घिरा है। अधिकंा’ा लोग किसान हैं। इलाज के लिए आते हैं छोटी बीमारी के लिए यह अस्पताल ठीक हैं लेकिन पूरा का पूरा झारखण्ड ही नही पूरा भारत इस मलेरिया बीमारी से ग्रसीत है। गांव माने गरीबी गरीबी माने मलेरिया गांव के लोग ऐसी स्थिति में जिनके पास पैसा है वह ’ाहर की ओर जाते है। गरीब व्यक्ति के पास पैसा नही होता है वह अपने जीवन से हाथ धो देते है। ऐसा ही कई हजार केस वहां है। सीबनी मुडमा की रहने वाली हैं उसे लगातार 3 बार मलेरिया से गुजरना पड़ा बार बार प्राइभेट डाक्टर से इलाज कराने के बाद भी उसे मलेरिया छोड़ नही रहा है।

वही स्थिति कुष्ट रोगी का हैं भारत सरकार कहती है कुष्ट रोगी भारत से समाप्त कर दिया गया है किन्तु रंाची के विधानसभा से मात्र 4 किलो मीटर के दूरी में बसा कुष्ट काॅलोनी अपनी बुनियादी सूविधाओं से दूर है। कुष्ट काॅलोनी के नाम पर मिट्टी के घर बना कर 500 परिवार रहते है। उन्हें कुष्ट काॅलोनी कह दिया गया हैं वहां ना लाइट हैं और ना किसी साफ सफाई की व्यवस्था कुष्ट रोगी के परिवार को 10 कि0 चावल सरकार की ओर से दिया जाता है वह चावल में कीड़े लग चुके होते हैं। उन्हें वे लेना नही पसंद करते हैं। वे लोग भीख मांग कर अपना गुजारा करते हैं।

कुछ दिनों तक गांव में धुमने के क्रम में हमने पाया कि जिस बिमारी से लोग मर रहे उसके प्रति सरकार और प्रेस दोनो संवेदन विहीन है। गरीब व्यक्ति बीमार पड़ जाए तो उसे अपनी जान दे कर ही उस बीमारी से मुक्ती मिलती है। मानव लम्बे समय से कई बीमारियों से आर्थिक रूप झेल रहा हैं। वही ब्र्ड फूलू के नाम पर हजार किस्से हमारे दुनिया में आ गयें।

बुधवार, 6 अगस्त 2008

नरेगा कानून और बेरोजगारी भत्ता (एन. एफ. आई. एवं ए. आई. एफ फेलो’िाप के तहत )

अलोका
झारखण्ड राज्य के अन्तर्गत हजारीबाग जिले के कटकम सांडी प्रखण्ड के लोग लगातार नवम्बर 2007 से नरेगा कानून के अन्तर्गत बेरोजगारी भत्ते की मांग कर रहे है। 04.02 .06 को जाॅब कार्ड दिया गया परन्तु उस जाॅब कार्ड में काम नहीं दिया गया है। कटकमसांडी के महिला पुरूष एवं गांव के तमाम लोगो ने उपायुक्त कार्यालय हजारीबाग में घरना दे कर बेरोजगारी भत्ते की मांग कर रहे है।

पूरी व्यवस्था इतनी अनसूनी हो गयी है कि बार-बार आवाज लगाने के बावजूद मजदूरों के साथ अन्याय रूक नही पाता है। नरेगा कानून के तहत फिर एक बार इस नये बेरोजगारी दूर करने के नाम पर 300 मजदूर नरेगा के तहत काम मांग रहे है। इस 300 मजदूर ने काम का आवेदन 2007 मे ही किये थे लेकिन गांव के लोगो को न काम मिला और न बेरोजगारी भत्ता फिर एक बार सरकार ने मजूदरों को अपने अधिकार देने से वंचित करता नजर आ रहे है। कानून का पालन नहीं हो पा रहा है जब सरकारी पदाधिकारी कानून का पालन नही कर सकते तब आम जनता से क्यों उम्मीद करते है?

झारखण्ड प्रदे’ा मूलतः आदिवासी दलित का क्षेत्र रहा है यहां श्रम की पूजा और अपने श्रम पर वि’वास करते है विगत 15 सालों में झारखण्ड के जल - जंगल और जमीन पर विदे’ाी कम्पनी के नि’ाानें पर है जंगल पानी के अभाव में पन्नप नही रहे है जिससे वायू प्रदूषण तेज होता जा रहा है पूराने बचे हुए जंगल पर व्यापारियों का कब्जा होता चला जा रहा है। वही जीमन के उत्पादन के घटने से भूखमरी की स्थिति उत्पन्न हो जा रहीं है। उत्पादन का कम होना बेरोजगारी को बढ़ावा देते चले जा रहे है इस बेरोजगारी पलायन को बढ़ाव देती चली जा रही है। लेकिन बचे हुए कुछ गांव अपने श्रम के बल पर आज भी जीवित हैं। उस गांव में रहने वाले लोग आज भी बेरोजगारी है काम पाना चाहते है। नरेगा कानून उन किसानों के लिए खरा नही उतर पा रहा है जिनके किसानों के लिए रिन माफ करने का वादा किया हो।

गरीब सरकारी प्रक्रिया में लम्बे समय तक जुझता है। आखिर में तंग आकर पलायन करने की सोचते है। गरीबों के नाम पर बनने वाले कानून से गरीब लाभ नही उठा पा रहे है। जबकि अपने अधिकार को लागू करने उस अधिकार को पाने के लिए लम्बे समय से संघर्ष करना पड़ता है। जैसा की झारखण्ड के हजारीबाग मे हो रहे है। सरकार उन्हें न रोजगार मुहैया करा पा रही और न बेरोजगारी भत्ता ही दे पा रही है। बेरोजगारी भत्ते के मांग के लिए कटकमसांडी के गांव के लोग लगातार उपायुक्त कार्यालय के सामने घरना दे रहे है।

बेरोजगारी भत्ता पाने वाले चिन्तामन राम ने बताय कि हमारा अधिकां’ा समय सरकार के बनाए कार्यालय में घुमते - घुमते बीत जाता है वहीं सरकार की तमाम प्रक्रिया और विकास संबधी योजना प्रखण्ड कार्यालय आती है। प्रखण्ड कार्यालय के प्रधान पदाधिकारी अपनी मनमौजी करते है। वे पैसा से पैसा बनाना चाहते है जबकि कितने गरीब लोगों के परिवार आज भी 20 रू0 में अपने जीविका चला रहे। कितने परिवार आज भी एक ही समय चुल्हा जलते है हर दिन कमाने पर भोजन प्राप्त हो सकती है। आज भी मजदूरो के नाम पर छलावा है उसका खमियाजा मजदूर और किसान ही भूगते है। कारण कि अपने पेट के लिए इस ’ाहर से उस ’ाहर से मजदूरी करने जाते हैं जिससे एक रि’ता भी बन जाता है लोग आहिस्त से पहचाने लगते है और अपने अपने काम के अनुसार हमें बुलाते है सरकारी कानून, योजना इस रि’ते को तोड देता है। एक क्रम से अपना बना था टुट जाता है। बहुत कम समय हम सरकारी लाभ उठा पाते है।

सिलादेवी लुटा गांव की रहने वाली हैं। किसी के खेत में काम करके अपनी आजीविका चला रहे थे। इस कानून के आते ही गांव के ग्रामसभा के अघ्यक्ष के लोगो ने बिना बैठक कराए र्फाम भरकर ले गये और कहा कि इसके आधार पर अब सरकार सभी गांव वाले को काम देगी और यदि नही देगी तो बदले में बेरोजगारी भत्ता देगी। हम गांव वाले समेट लगभग 50 ंलोगो नेेे इकट्ठे काम का आवेदन दिया । आवेदन हमने 2007 में दिये हमें काम नही मिला करीब 15 दिनों के बाद हम लोगो ने बेरोजगारी भत्ते की मांग की उसके लिए डी डी सी, ब्लाॅक, कार्यालय, में चकर काटते- काटते 2008 हो गयें बेरोजगारी भत्ता नही मिला फिर हम लोगो ने उपायुक्त कार्यालय के समक्ष धरना देना ’ाुरू किये जिससे कोई फायदा होता नजर नहीं आ रहा है।

उधर भारतीय कम्युनिस्ट पाटी (माक्र्सवादी ) के जिला सांगठनिक कमिटि नरेगा में हो रहे गड़बड़ी को लेकर धरना दे रहे है। और लगातार यह मांग कर रही है कि बेरोजगारी भत्ता का बिना देर किये ग्रामीणों को दिया जाए तथा सभी जाॅबधारियों को काम दिया जाए इस मांग के साथ लगातार संघर्ष चल रहे है। सी पी आई (एम) के जिला सचिव गणे’ा कुमार बर्मा ने बताया कि नरेगा के द्वारा कटकमसांडी में लगातार गड़बडियां हो रही है। जिसकी जानकारी जिला के तमाम सरकारी पदाधिकारियों को है। इसके बावजूद मजूदरों को बेरोजगारी भत्ता नही दिया जा रहा है।

सी पी आई (एम) के जिला सचिव गणे’ा कुमार बर्मा ने कहा कि भारत सरकार द्वारा नरेगा कानून लागू करना@ करवाना जिला प्र’ाासन का परम कत्र्तव्य है। अपने पत्र में अपने प्रखण्ड विकास पदाधिकारी कटकमसांडी को पत्र का उल्लेख करते हुए बताए कि मजदूरों को सामूदायिक भवन में काम करने की जानकारी दी गयी परन्तु मजदूर काम करने नही आये। प्रखड विकास पदाधिकारी 03.10.07 को ये पत्र लिखते है। और मजूदरेां को लिखित सूचना 7.10.07 को दिया जाता है। इससे ये साफ प्रतीत होता हैं कि कानून के प्रावधानों का लाभ मजदूरों को न मिले इसलिए भ्रमक सूचना दिया। ऐसे भी इसका विरोध पार्टी नेे धरना के माघ्यम से उपायुक्त हजारीबाग के पास 90.10.07 को दर्ज करवाया है।

यदि प्रखण्ड विकास पदाधिकारी की बात को मान भी ले तो क्या बन रहे सामुदायिक भवन में 45 मजदूरों का विधिवत ( मजदूर को लगातार 14 दिन रोजगार सप्ताह में 6 दिन से अधिक नहीं) तरीके से कार्य दिया जाना संभव है? जाहिर है नही इसलिए ये मजदूर बेरोजगारी भत्ता पाने के योग्य है। क्या जहां समुदायिक नई भवन बनाया जा रहा है वहां मजदूरों के लिए नरेगा क तहत उपलब्ध सुविधाएं है? यदि सुविघाएं नही है तो मजदूर वहां काम करने क्यों जाएगी इसलिए भी मजदूरेां को बेरोजगारी भत्ता पाने के हकदार है। प्रखण्ड कृषि पदाधिकारी का ये कहना है कि 12 मजदूर ’ाहर में काम करने जाते है और यह बात भी सत्य है 12 क्या 12 से ज्यादा मजूदर बाहर काम करते हैं वे लोग रोज कमाते और रोज खाते हैं

यदि एक दिन भी बैठ जाए तब उनका परिवार कैसे चलेगा गांव में रोजगार नही मिलेगा तो काम की तला’ा में ’ाहर तो जाएगे ही। नरेगा कानून का उदे्द’य ही है। पलायन रोकना और ग्रामीणों को उसके गांव में 5 कि0 मी0 के अन्दर काम उपलब्ध करवाना है। इन तमाम कारणों के साथ उपायुक्त को पत्र लिखे जा चुके किन्तु नरेगा के तहत किसी भी लोगों को बेरोजगारी भत्ता नहीं दिया गया है।

झारखण्ड में नरेगा फेल होने का बड़ा कारण पंचायत चुनाव का न होना लगता है। दुसरी ओर सरकार ने आदिवासी दलित समाज के परम्परागत सभा को मान्यता नहीं दी है। सरकारी पदाधिकारियों द्वारा ग्रामसभा का गठन किया जाता रहा है। उसके माघ्यम से नरेगा कानून को लागू करने में परे’ाानी हो रही है। जिससे लोगो को रोजगार नहीं मिल रहे है। ऐसी स्थिति में पलायन लाजमी है।






शनिवार, 5 जुलाई 2008

महिलाओं के गरीबी और भूख को मिटाने नरेगा कारगर नही हैं।

अलोका


2 फरवरी, 2006 से देश के 200 जिलों में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून 2005 लागू हो चुका है। झारखंड के 22 जिलों में से 20 जिले में इस कानून के अंतर्गत कार्य ’ाुरू हो चुका हैं देश के स्तर पर देखें तो सार्वधिक जिले झारखंड को ही मिला है। यह कोई खुश नसीबी की बात नहीं है। ज्ञात हो कि झारखंड की आधी से अधिक आबादी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं। भूख से मौत और पलायन एक बड़ी गंभीर समस्या है। लम्बे समय से झारखण्ड के कई जिले के लोग देखते आ रहे कई योजना आई और गई किन्तु झारखण्ड के गरीबी को समाप्त नही कर पाये और फिर एक कानून गरीबी और भूख को मिटाने के लिए लाया गया किन्तु इसे गांव में रह रही महिला को कोई लाभ नही मिल पा रही हैं क्योंकि झारखण्ड की गांव की महिलाएं निरक्षता के मार से उबर नही पाया हैं और रोजगार गांरटी कानून के द्वारा महिलाओं को कम लाभ उठा पा रही जिसका नतीजा यह हुआ कि वे दुसरे ’ाहरों की ओर पलायन कर रोजगार तला’ा कर रही हैंझारखंड जैसे राज्य में जहाँ गरीबी और बेरोजगारी है। लोग रोजी रोजगार के लिये पलायन कर रहे हो तथा किसी तरह 2 जून की रोटी जुगार मुश्किल हो रहा है। रोजगार गारंटी कानून को लागू करने व हर संभव हर स्तर पर लागू करने का प्रयास ना कामबयाब ही दिखाई दे रहा हैं। झारखण्ड के जिला गिरिडीह में महिलाअेां के पास रोजगार के नाम पर कुछ भी नही मिला कई दलित परिवार हैं जिनके लड़कीया गरीबी के कारण बेच दिये जा रहे हैं। एक “ाोध के आधार पर लिखी गयी किताब (गिरिडीह की बेटी रूप की मंडी )के आधार पर कई सौ लडकियां दूसरे “ाहरों में बाह कर बेच दी गयी। भूख और गरीबी ने सौदा सिफ लडकियो का ही होता रहा है।दलितो पर कार्यरत रामदेव ने लोगों को बताया कि कोई भी कानून लोगों के अधिकार के लिए है। इस कानून को जमीन में उतारने की जरूरत है। यह कानून आपके मांग और पहल पर निर्भर करता है। रोजगार गांरटी कानून, जाॅब कार्ड के बारे में लोगो को जानकारी सरकार कि ओर से देनी चाहिए। झारखण्ड में पंचायत चुनाव नही हुआ हैं। चुनाव नही होने के कारण कई सरकारी योजना जमीन स्तर पर नही उतारा जा सका हैं। जनती अपने व्यवस्था के अन्तर्गत नही आयेगी तब तक लोगो का विकास संभव नही तब तक भूख और गरीबी समाप्त नही हो सकती है। गिरीडीह जिले के महिलाएं रोजगार की खोज में हैं किन्तु इस योजना के बारे में महिलाओ को कम जानकारी हैं। जनकारी के अभाव में लोगो को योजना का लाभ नही हो पा रहा है।लक्ष्मी चरण महतो ने कहा कि आजादी के बाद हमें जो शक्ति मिली है। यह जनाधार को मजबूत करने के लिए मिला है। आनेवाले समय में हम अधिकार और अधिकारियों की यथार्थता को जानेंगे। इसके नहीं मिलने पर कानूनी हक प्राप्त करेंगे। महिलाओं को समाज में समान दर्जा प्राप्त होगा। हर बार महिलाएं पीछे छूट जाती रही है। उन्हे किसी भी योजना का लाभ नही हो पाता है। क्येां कि ब्लांॅक स्तर पर बिचैलिया किस्म के लोग ज्यादा रहते है। उनका कहना हैं कि यदि कुछ महिला को रेाजगार मिल भी गया तो तो उसे समय पर भूक्तान नही हो पा रहा है। जिससे आधा अधूरे काम कर महिला महानगर की ओर पलायन करने में ज्यादा रूचि ले रही है तथा काम कैसे-कैसे प्राप्त किया जा सकता है आवेदन का प्रारूप क्या होगा ? आप हमें कैसा सहयोग करते रहेंगे ? आपकी इसमें अभिरूचि की क्या पेशा है ? आदि क बारे में महिला को कोई जानकारी नही हैं।चंद्रशेखर ने कहा कि गिरीडीह के गंाव में नारेगा के तहत जितने काम दिये जाएगे उस काम से जो होना हैं उससे आम आदमी को कोई लाभ नही मिलेंगा क्यों कि यह क्षेत्र कोयला के रहा हैं आधी से ज्यादा महिलाएं कोयला निकाल कर प्रति दिन 150 रूपया कमाती है। इस योजना के तहत हमें सौ रूपये से भी कम पैसा मिलेगा तथा कोयला खदान से विस्थाप हुए समूदाय को तालाब और रोड़ से क्या मतलब वो तो अपने जीविका और अपने स्थान के लिए दर दर भटक रहें है।

महिला श्रमिक आज भी चैराहें पर

अलोका

(एन. एफ. आई. एवं ए. आई. एफ फेलो’िाप के तहत )
अपने घर के अन्दर ’ाुरू से कार्यरत्त आबादी महिलाओं की रही है। ’ाायद आज के दौर में महिलाएं 18 घंटे काम कर रही है। उनके श्रम को पूरे दूनिया ने नकारा है। 21 वी सदी वाली दुनिया में महिलाओं के श्रम नगण्य रही है। श्रम की इस प्रक्रिया में महिलाओं का स्थान भविष्य दिखना संभव नहीं हैं। पूरे भारत में महिला कामगार की संख्या घर, मूहल्ले हर कस्बे, हर खेत, हर बस्ती और न जाने कहांं कहां उनके श्रम कर रही है और करती रहेंगी। पंूजी के बदलते दौर में किया गया श्रम किया गया श्रम ही श्रम माना गया है महिलाओं द्वारा किया गया काम सेवाभाव है। जबकि 21 वी सदी का भारत में पूरी- पूरी महिलाएंं अपने श्रम के बल पर अपना जीवन चला रही है बेटी पैदा होने अैर पांच साल की उम्र के बाद उनके श्रम ’ाुरू हो जाते है। इस श्रम को परिवार, समाज, राज्य, राष्ट्र ने कभी स्वीकारा ही नही। परिवार की नीवें रखने वाली, परिवार चलाने वाली महिलाएं होती है।पूरे भारत को नजदीक से देखे तब पाएगे कि महिलाए श्रमिक की संख्या सबसे ज्यादा है। भारत की अर्थव्यवस्था में महिलाओं का योगदान रहा है। उनकी श्रम के बल पर आज भी समाज, राज्य, परिवार चल रहे है। एक न्यू बुलेटिन में छपे समाचार के आधर पर वि’व बैक की 1989 की रिपोर्ट के अनुसार गरीबी रेखा के नीचे के 35 प्रति’ात परिवारों की मुखिया महिलाएं है यह परिवार महिलाओ की श्रम, कमाई पर आश्रित है। रिपोर्ट के अनुसार निचले तबको के परिवारों में महिलाओ का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। उत्पादन कार्य में जुटी महिलाएं, श्रम बेचने, श्रम देने एवं आर्थिक उत्पादन पर निर्भर गरीब परिवार महिलाएं है। आज भी दुनिया में समान मजदूरी की लड़ाई जारी है। गरीब परिवार के महिलाओं को आज भी पुरूषो के मुकाबले कम आय (पैसे) मिलते है। परिवार में उनके श्रम को सेवा के रूप में लिया जा रहा है। घर की सुफाई से लेकर बाहर कम किमत पर कार्य कर रही है। इस कार्य की गणना कही भी दर्’ााया नही गया है। एवं गणना नही की जाती है। 21 वी सदी का भारत में सरकारी विभाग, हर प्रतिष्ठान, हर संस्थान, संडकों पर खेतो पर रसोई घर में बाजार, स्वास्थ्य क्षेत्र में हर क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की मांग बढ़ गयी है। कम पैसे में ज्यादा श्रम देने वालेेेेे आज कोई वर्ग है वह है महिला वर्ग । भारत में महिला श्रमिक के संगठन बनने नही दिया गया है। वि’व की महिला श्रमिकों की लड़ाई क्लारा जेटिलन ने महिलाओं की आजादी की मांग को वि’व स्तर पर उठाया था। भारत में महिलाओं ने अपने अधिकार के प्रति सजग हुई पर गति काफी धीमी रही। सेवा के भावना को तोड कर धीरे- धीरे महिलाएं अपने श्रम को मूल्यों के साथ जोड़ना ’ाुरू किया। वह मूल्य काम घंटे के हिसाब से काफी कम है। आज भी भारत के सरकारी नौकरी करने वाले 2 प्रति’ात महिलाओं को छोड़ कर हर क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं के श्रम को आय काफी कम है। इस प्रकार के कार्य सीधे अर्थो में अदृ’य रहते है एवं महिलाओं के योगदान पर राष्ट्रीय मानव संसाधन एवं आर्थिक नीतियां कुछ नहीं कहती।क्या कारण है कि महिला श्रमिक वर्ग सबसे ज्यादा असंगठित क्षेत्र में कार्यरत्त है। 1991 में किये गये जनगणना के अनुसार 95 प्रति’ात महिलाएं अंसगठित क्षेत्र में कार्यरत्त है। 5 प्रति’ात महिलाएं पुरूषों के कामगार संगठन ट्रेड युनियन या अन्य संगठन में एका हो लेते है। असंगठित क्षेत्र की महिला श्रमिक जहां उन्हें अच्छी सेवा’ात्र्तो एवं बराबर (न्यायपूर्ण मजदूरी) मजदूरी नही मिलती है। न ही वहां उन्हें उत्पादकता बढ़ाने के अवसर मिलते है। काम करने वाले स्थानों में पानी, ईधन, स्वास्थ्य, सुविधा, एवं पलना घर जैसी सुविधाओं का अभाव रहता है। यौन, उत्पीड़न इस क्षेत्र में अत व्याप्त है। ठेकेदार, कुली, मिस्त्री एवं अन्य पुरूष श्रमिक लडकियों, महिलाअेां का यौन ’ाोषण करते है। गरीबी, जानकारी का अभाव, लोकलाज के कारण बात सामने नही आ पाती है।अंसगठित श्रमिक समाजिक सुरक्षा विधेयक 2007 में महिला श्रमिक कों श्रमिक नही माना है। लोकसभा के स्थाई समिति की कामरेड सुधाकर रेड्डी की अघ्यक्षता में जारी की गई रपट में अंसगठित श्रमिक समाजिक,सुरक्षा विधेयक को प्रस्तुत किया है। उसके कुछ महत्वपूण मुद्दे पर टिप्पणी की जा सकती है। 1। इस विधेयक में उन महिला श्रमिकों को श्रमिक नही माना है जिन्हें वेतन, मजदूरी या बाजार से मुनाफा नही मिलता। वे श्रमिक जो उन संस्थानों में काम करते है जहां 10 से अधिक श्रमिक नियोजित ह, भी सम्मिलित नहीं है, परन्तु यदि संगठन क्षेत्र में कार्यरत होने के बावजूद भी अन्य सामाजिक सुरक्षा काननू का लाभ नही मिलता तब वे सम्मिलत माने जायेंगे। 2। यह विधेय में समाजिक सुरक्षा के लिये श्रमिकों को एक हिस्सा जमा करने का प्रावधान हे। विधेयक राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा एवं कल्याण निधि स्थापित करता है परन्तु इस निधि का प्र’ाासन एवं सामाजिक सुरक्षा के लिए व्यय सम्बन्धी अन्तिम निर्णय के अधिकार सरकार को ही है। 3। सभी अंसगठित श्रमिको का सामाजिक सुरक्षा प्राप्त करने के लिये पंजीकरण कराना होगा और स्वयं इसके लिए आवेदन करना होगा। 4. विधेयक में सामाजिक सुरक्षा बोर्ड के गठन के प्रावधान हे। परन्तु वे स्वायत्त (र्आटोनोमस) नही होगे इन राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय बोर्डो में सदस्यों का नामांकन सरकार करेगी। बोर्डो को सिफारि’ा, सुझाव, योजनाओ की समीक्षा, वि’लेषण आदि के अधिकार है। उन्हें कुछ प्र’ाासिनक अधिकार भी है। 5. सह विधेयक सरकार की कई वत्र्तमान योजनाओं को सम्मिलित कर लेता है परन्तु जो सुरक्षा लाभ दिये है वे बहुत कम स्तर पर है। जैसे 500 रूपयें मातृत्व लाभ 200 रूपये वृद्धावस्था लाभ, स्वास्थ्य के लिये अधिकतम 30,000 रू0 एक वर्ष में आदि। इनमें अधिकतर बीमा आधरित लाभ है। इन रा’िायों का औचित्य अस्पष्ट है। 6. यह विधेयक असंगठित श्रमिकों को आजीविका, नियोजन, जल, जंगल, जमीन स्वयं का घर आदि के सामाजिक सुरक्षा अधिकार नही देता। इसमे श्रम अधिकार, सामाजिक सुरक्षा अधिकार, दलित एवं महिला और प्रवासी श्रमिकों के अतिरिक्त सामाजिक सुरक्षा अधिकार आदि क प्रावधान नही है। सेवा ‘’ार्ते, कार्य के समय सुरक्षा आदि के भी प्रावधान नहीं है। विधेयक विवाद सुलझाने के प्रावधान सम्मिलत करता है परन्तु असंगठित श्रमिकों के प्र’ाासन से उत्पन्न विवादों जैसे विस्थापन, आजीविका सम्बन्धित, पुलिस या नगर- निगम द्वारा आक्रमकता सम्बन्धित विवादों को सुलझाने पर गौन है। खेतीहर महिला श्रमिक पूरा काम का जिम्मा लिए हुए है। बीज डालने से निकावन तक खाना बनाने से लेकर बाजार, बच्चे, पति की सेवा तक करती है। उत्पादन के इस कार्य में प्राचीन समय से महिलांए अपना योगदान देती आ रही है। लेकिन महिला किसान के रूप महिलाओं को कभी स्वीकारा नही गया है। उसका श्रम को महत्व भी नही दी गयी है। उनके बने भोजन को चाट कर भी श्रम की बात नहींं कही गयी है। उसी काम को पुरूष द्वारा बाजार में मूल्यों के साथ काम करते हैं तब वह श्रम में माना जाता रहा है। खेत से घर तक का पूरा काय्र महिलाएं अपने बल पर करती रही है। इसक कार्य को करने में उन्हें श्रमदान करना पड़ता है।भारतीय संविधान प्रंजातंत्र एवं समानता मूलक रहा है। परन्तु यह वास्तव में समानता की बात स्वीकार सकते क्या? दे’ा में कमजोर तबको तक यह अधिकार पहुंच पाई है। सत्य कहे तो नही पहुंच पाई हैं। सामनता के अभाव के बिना महिला श्रमिक वर्ग ’ाोषण में ढकेले गयें है। वे मुख्यधारा से आज भी बाहर है और जीवन की कुरूरतम से भाग कर अपना बचाव करते है। 60 साल आजादी वाला दे’ा में महिलाएं आज भी मुत वाले चुल्हा- चैका से साथ कम किमत पर काम करने बाहर जाना पड़ता है। आज भी 65 प्रति’ात महिलाएं अ’िाक्षा के ’िाकार है। सबसे ज्यादा गरीब तपका वर्ग महिला है। जिन्होने लम्बे- समय से मुत में श्रम दान देती आ रही है आज भी महिलाएं 18 घंटा काम करती है एवं आम महिला श्रमिक को सामाजिक सुरक्षा, मानवाधिकार, समान पारश्रमिक, कारगार व्यवस्था, आवका’ा, मातृत्व लाभ, विधवा, गुजारा भत्ता, कानुनी सहायता से आज भी वंचित है।अलोकाएच
बी रोड़ थड़पखना

महिला होने पर नरेगा के लाभ से वंचित ( अलोका एन. एफ. आई एवं ए. आई एफ फेलोसिप के तहत )

।निजीकरण के इस दौर में पूरे भारत में तेजी से बेरोजगारी बढ़ी है। इस बेरोजगारी ने भारत के हर प्रंात मे राजनीति, समाजिक, आर्थिक स्थिति को चरमरा दिया हैै। जिससे आने वाले भविष्य एवं ग्रामीण जनजीवन पर व्यापक असर पड़ा हैं हर क्षेत्र मे बेरोजगारी की भार से समूचित समाज की संरचना ही बदल गयी है। कही पलायन तो कही भूख से मौत कही लोग गरीबी और बेरोजगारी के कारण गांव ही बेच दे रहे हैं। इस वक्त भारत सरकार ने लोगो को राहत के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांरटी कानून बना कर लोगो को राहत देने का काम किया। किन्तु यह कानून क्या महज कानून ही बन कर ही रह जाएगे। आजादी के बाद ग्रामीणों को साल ंमें 100 दिन के काम के अधिकार की महत्व उतनी हैं जीतना जीवन के लिए पानी। झारखण्ड में इस कानून का खास महत्व है। झारखण्ड एक ऐसा राज्य है। जहां प्राकृतिक संपदा सबसे ज्यादा होने के बावजूद यहा के लोगो को रोजगार का अभाव है। लूट खसोट की व्यवस्था ने पलायन करने पर मजबूर कर दिया है।इस कानून को लागू कराने के लिए दे’ा भर में अरूणा राय, ज्यां द्रेज ,निखिल डे नेतत्व में आंदोलन हुआ था जिसका परिणाम हैं कि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गांंरटी कानून 2005, महाराष्टा में 1977 से लोगों को रोजगार के अधिकार व कानून बनने के बाद,ग्रामीण बेरोजगार अकु’ाल, नरेगा के साथ झारखण्ड राज्य में इस कानून को परिकल्पित की गई है। फरवरी 2006 को लागू होने के उपरान्त प्र’ाासन के कच्छप चाल से रोजगार के अधिकार से वंचित किये जाने लगी चाईबासा की ग्रामीण गरीब, बेरोजगार जनता।वही चाईबासा के गांव में इस कानून का पालन नही किया गया है। खुटपानी ब्लाक के उपर टोला,टोनटो ब्लाक के झीरजोर, कुईल सुटा,रूटागुटू सारजोम बुरू उडेलकम में रोजगार कार्ड के बारे में वहां के लोग नही जानते हैं। जबकि वह गांव आदिवासी क्षेत्र है। वहां कि 528 परिवार के लोग रह रहें उन्हे रोजगार की जरूरत हैं। इस गांव को आवेदन भराया नही गया हैं। ग्राम प्रधान इस गांव के लोगो को अलग कर के आवेदन दिया गया। समाजिक कार्याकत्र्ता ज्योत्सना तिर्की ने बताया कि वहां के ग्रामीणो को महिला होने के कारण अलग कर दिया हैं। जबकि उन परिवारों को रोजगार की जरूरत हैं। किस गांव में आवेदन भरा गया कि नही इसकी जानकारी या निरक्षण नही किया गया हैं। बल्कि नारेगा प’िचम सिंहभमू में कागजो पर चल रहें हैं। जिसके परिणाम हैं कि कई गांव में नारेगा कानून को लोग नही जान पायेे हैं। जबकि इस कानून को लोगो तक पहुंचाने का काम ग्राम प्रधान और ब्लाॅक पदाधिकारी के द्वारा जानकारी देना हैं वह भी नही हो रहा हैं।उन्होने बताया कि पंजीकरण के लिए पंचायत सेवक द्वारा एक लिस्ट जारी किया गया है। जिसमें तय कर दिया गया हैं कि किनको आवेदन करना हैं। ग्रामीण क्षेत्र में बहुत ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें वास्तव में रोजगार की आव’यकता हैं। 2 रूपये में आवेदन र्फाम बेचे जा रहे है। 25 से 45 रू0 में फोटो खिचाया जा रहा हैं नारेगा से एक नया व्यापार का जन्म हो रहो हैं।चाईबासा के सुदूर गांव मे केन्द्र सरकार द्वारा इस कानून के बारे में अखबार, रेडियों, दुरदर्’ान द्वारा जनता को जानकारी दी गयी हैंंं। चुंकि ब्लॅाक में कई प्रकार के योजनाएं चल रही हैं। यह पहला कानून हैं जिससे दे’ा में गरीबी और भूख से मौत को रोकने के लिए बनाया गया है। इसे बार- बार लोगो को अधिकार के प्रति सजग करने के लिए चेतन का विकास का प्रयास ब्लाॅक के द्वारा करना चाहिए। जिससे ब्लाॅक के अधिकारी निभा नही पा रहें। चाईबासा के टकराहातु, डिलियामार्चा गांव में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून के बारे में जाॅब कार्ड की स्थिति का जायजा लेना तथा आवेदन करने पर हो रहे समस्या पर बात कि गर्यी। मालती वानरा ने बताया कि चाईबासा में रोजगार गारंटी कानून के तहत लोगो को सफेद कागज में आवेदन कर सकते हैं, आवेदन के बाद आवेदक को जाॅब कार्ड उपलब्ध किया जाएगा । जाॅब कार्ड मिलते ही रोजगार के लिए आवेदन करें जाॅब कार्ड में फोटो साटना तुरन्त जरूरी नही आप बाद में भी फोटो दे सकते है। आवेदन देना , फोटो खिचवाना तथा जाॅब कार्ड निः शुल्क में ग्राम सेवक द्वारा किया जाएगा तथा आप अपने जाॅब कार्ड द्वारा 15 दिन का काम दिया जाएगा इस कानून के तहत 100 दिन का रोजगार की व्यवस्था केन्द्र सरकार द्वारा किया गया है। किन्तु महिला संदर्भ केन्द्र के द्वारा किये गये निरक्षण से पाया गया कि चाईबासा में अल्पसंख्यक 47 परिवार को कार्ड की की प्राप्ति हुईै है। बाकी लोगों को अभी तक नही मिली है। बड़ी संख्या में गांव में लोगो को जाॅब कार्ड नही मिल पाया हैं कई गांव में तो किसी - किसी का फोटो जमा नही है। यह भी पाया गया कि दुसरे के जाॅब कार्ड में किसी और व्यक्ति का फोटो सटा हुआ है। गांव में पंचायत सेवक द्वारा लोगो को आवेदन करने की इजाज+त नही दे रहें हैं। कई तरह के गडबडी यहां हो रहे है। हमे चाहिए की हम एक जुट हो कर अपने अधिकार के लिए आंदोलन करे ताकि सरकारी पदाधिकारी को हम अपने अधिकार के प्रति चेतावनी दे सके हमारी ग्राम सभा में इतनी ताकत है कि हम किसी पदाधिकारी से हम अपना हक ले सके।

अलोका

शुक्रवार, 6 जून 2008

मैं तुझे फ़िर मिलूंगी.....


अमृता प्रीतम जी का लिखा हुआ हो और गुलजार जी की आवाज़ हो तो इसको कहेंगे सोने पर सुहागा ...। यह कविता उन्होंने अपने आखिरी दिनों में इमरोज़ जी के लिए लिखी थी । इस कविता का एक एक लफ्ज़ प्यार का प्रतीक है । अमृता बहुत बीमार थी उन दिनों ...वह अपने आखिरी दिनों में अक्सर तंद्रा में रहती थी । कभी कभी एक शब्द ही बोलती लेकिन इमरोज़ के लिए हमेशा मौजूद रहती पहले की तरह ही हालांकि इमरोज़ पहले की तरह उनसे बात नही कर पाते थे पर अपनी कविता से उनसे बात करते रहते .। .एक बार खुशवंत सिंह जो अपने घर में अक्सर छोटी छोटी सभा गोष्टी करते रहते थे ..इन दोनों को कई बार बुलाया पर यह दोनों नही जाते थे तब उन्होंने पूछा अमृता को फ़ोन कर के पूछा था कि तुम बाहर क्यों नही निकलते हो ..क्या करते रहते हो सारा दिन तुम लोग ?अमृता ने जवाब दिया गल्लां ""[बातें ]उन्होंने हंस कर कहा इतनी बातें करते हो तुम दोनों की खतम नही होती है तब अमृता सिर्फ़ हंस कर रह गई ..पता नही दोनों कैसी क्या बातें करते थे कभी शब्दों के माध्यम से कभी खामोशी के जरिये पर दोनों को साथ रहना पसंद था एक दूसरे के आस पास रहना पसंद था

सोमवार, 26 मई 2008

इन संस्थानों को महिला की सहायता के लिये चलाया जारहा हैं

भारत मे इस समय निम्नलिखित संस्थानों को महिला की सहायता के लिये चलाया जारहा हैं । आवश्यकता पड़ने पर इन से सम्पर्क किया जा सकता हैं । कुछ पत्ते हम सब को अपनी पर्सनल डायरी मे रखने चाहीये ताकि समय पर हम उन्हे दूसरो के लिये उपलब्ध करा सके । कुछ संस्थानों से जुड़ना भी चाहीये पर व्यक्तिगत कारण से अगर ना सम्भव हो तो इनकी जानकारी अवश्य रखे ताकि आप समय रहते किसी की साहयता कर सके
Joint Women's प्रोग्राम
CSIRS, 14 Jungpura B, Muthura Road,
New Delhi : 461-9821Fax: 462-3681।
इंडिया
पुणे
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puने41100india

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CWDS is a research centre comprised of a group of professionals workइनg for the realization of women's equality and development all spheres of life. The centre maइन taइन s a specialized library with a collection on women and development इन India, open to students, research scholars, gender consultants, policy makers, journalists etc।










शनिवार, 3 मई 2008

अति सुन्दर काया

अलोका
आखे जो झील मे दुबे हो
कमर के सुन्दरता
मेरी अक्खो मे घूमती हो
पुरा का पुर संसार
कायल हो गया
झील सी आखो मे

मिली मिसी दोर्ट कॉम

aलोक
हम खेलने लगे विगन से
एक बॉक्स ओर एक सब्द
बाते जो होने लगी
शब्दों से
प्रेम का पेगाम
आने लगा
शब्दों से
हम फिर बॉक्स के मध्यम से
पहुच गए नये कलयुग मे
प्रेम पत्र veg रही अंजन कों
हर छार हो रही है पुरी
एक बॉक्स मे
ज्बबो के प्रतिजबाब
श्बोतो के प्रति शब्द
आ रही हमारी जहाँn कों

शुक्रवार, 2 मई 2008

स्त्रियों ने भी रची हैं वैदिक ऋचाएं - कुमार मुकुल

वेदों के पुनरपाठ की इस कड़ी में आप देखेंगे कि जिस स्त्री के वेद पढ़ने पर ही प्रतिबंध था, उसके कई हिस्सों की रचयिता वे खुद हैं।वेदों को लेकर सबसे बड़ा वितंडा यह है कि यह अपौरुषेय है, ब्रह्मा की लकीर है, वेदों का अध्‍ययन करने पर यह भ्रम सबसे पहले दूर होता है। वेद की हर ऋचा को रचनेवाले ऋषि का नाम उसमें दर्ज है और ऋषि एक-दो नहीं पच्चीसों हैं, जिनमें दर्जनों नारियां है। अब कोई एक लेखक हो तो उसका नाम लिखा जाए वेद के लेखक के रूप में, बहुत सारे लेखक होने के कारण ही सबका नाम उनकी रचना के साथ दे दिया गया है।वेद ब्रह्मा की लकीर भी नहीं हैं, इस बारे में तो हमारे पुराने शास्त्रों में ही कई कथन मिल जाएंगे। परशर-माध्‍वीय में कहा गया हैµश्रुतिश्च शौचमाचार: प्रतिकालं विमिध्‍यते।नानाधर्मा: प्रावर्तन्ते मानवानां युगे युगे।।मतलब, हर युग में मनुष्यों की श्रुति (वेद), आचार, धर्म आदि बदलते रहते हैं। अब सवाल उठेगा कि वेदों की तब क्या प्रासंगिकता है। जवाब में हम सिर ऊंचा कर कह सकते हैं कि वेद हमारे आदि पुरुषों-स्त्रियों के प्रथमानुभूत सुन्दर विचार हैं, पर वे अन्तिम विचार नहीं हैं। दरअसल, वेद उस समय की उपज हैं, जब विकास क्रम में लगातार नई-नई चीजों की खोज हो रही थी।उनमें जो भी चीजें थीं, जो हमें कुछ देती थीं, वे आगे देवता कहलाने लगीं। ऐसा नहीं था कि केवल लाभदायक चीजें ही देवता कहलाईं। जो भय त्रास देती थीं, वे भी देवता कहलाई, जरा अपने कुछ प्रचलित वैदिक देवताओं के नाम देखें-जंगल, असुर, पशु, अप्सरा, बाघ, बैल, गर्भ, खांसी, योनि, पत्थर, दु:स्वप्न, यक्ष्मा (टीवी), हिरण, भात, पीपल आदि।अब कुछ अप्रचलित ऋषियों के नाम देखें जिन्होंने वैदिक ऋचाए रचीं-मानव, राम, नर, कुत्स, सुतम्भरा, अपाला, सूर्या सावित्री, श्रद्धा कामायनी, यमी, शची पौलमी, ऊर्वशी आदि। वेदों की रचना में स्त्रियों की महत्‍वपूर्ण भूमिका है, यह उपरोक्त स्त्री ऋषियों की ऋचाओं को पढ़कर जाना जा सकता है।मजेदार बात यह है कि स्त्री ऋषियों ने कई ऐसी ऋचाएं रची हैं जिनमें उन्होंने खुद को ही सर्वशक्तिमान कहा है। कहीं यह स्त्रियों की मजबूत स्थिति ही तो नहीं है कि आगे षड्यंत्रकारी पुरुष वैदिक भाष्यकारों ने उनको वेद पढ़ने की ही मनाही कर दी, जिसकी आज तक वकालत की जाती है। जो स्त्रियां¡ खुद वेद रच सकती हैं, उन्हें उनका पाठ करने से कोई कैसे रोक सकता है? वेद को पढ़ें, तो वे अपने समय की सहज रचना मालूम पड़ती हैं। बातें वहां बड़ी सीधी हैं। उनको समझने के लिए किसी प्रकाण्डता की जरूरत नहीं है, जरूरत उनकी अनुवाद के साथ उपलब्धता की है।वेदों में प्रकृति को लेकर सहज उल्लास है, प्रकृति आज भी हमें उसी तरह उल्ल्सित करती है। वहां छोटी-छोटी कामनाओं के लिए आदमी इन्द्र से याचना करता है। आज तक वह याचक कृति हमारे लिए अभिशाप बनी चली आ रही है। छोटे-छोटे डरों से भयाक्रान्त वैदिक मनुष्य ऋचाओं में उन्हें देवता पुकारता, उनसे मुक्ति की मांग करता है।वह विकास का आरिम्भक दौर था और जानने की प्रक्रिया में यह एक सहज क्रिया थी, विशिष्ट नहीं। जैसे ऋग्वेद के दसवें खंड के 184 वें सूक्त में ऋषि त्वष्टा लिंगोक्ता : देव से प्रार्थना करते हैं-विष्णुयोनि कल्पयतु, त्वष्टा रुपाणि पिंशतु। मतलब, देवता इस स्त्री को प्रजनन योग्य बनावें। आज इस काम के लिए लोग डॉक्टर के पास जाते हैं।क्या उन्हें आज भी किसी ऋषि की खोज करनी चाहिए? इसी तरह सूक्त 165 में कहा गया है, `इस अमंगलकारी कबूतर को हम पूजते हैं। हे विश्वदेव, इसे यहां से दूर करें।´ क्या आज भी हमें कबूतर को अशुभ मान उनसे डरना चाहिए। आज कबूतर हमारे मिन्दरों में छाए रहते हैं और कोई उन्हें अशुभ नहीं मानता है। मतलब वेदों में सारा अटल ब्रह्मवाक्य ही नहीं है।

शनिवार, 5 अप्रैल 2008

मध्यूपूर्व में महिलाओं का एकमात्र होटल


सऊदी अरब के शहर रियाध में एक होटल खुला है जो मध्यूपूर्व में अकेला ऐसा होटल है जहाँ सिर्फ़ महिलाएँ जा सकती हैं. हमारी धार्मिक मामलों की संवाददाता फ़्रांसेस हैरिसन का कहना है कि महिलाओं के लिए होटल और परिवहन सेवाएँ दुनिया भर में बढ़ते हुए व्यापार का रूप ले रही हैं.

नक्शे पर देखिए भारत में लिंग अनुपात



वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में लिंग अनुपात
लिंग अनुपात की राष्ट्रीय दर- 933
# नक्शे में लिखे गए अंक के समकक्ष प्रदेश और केंद्रित शासित प्रदेश का नाम नीचे लिखा गया है.
वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में लिंग अनुपात:
( कोष्ठक में दिया गया आँकड़ा 1991 की जनगणना का है)
1. अरुणाचल प्रदेश- 901 (859)2. नगालैंड- 909 (886)3. मणिपुर- 978 (958)4. मिज़ोरम- 938 (921)5. त्रिपुरा -950 (945)6. मेघालय- 975 (955)7. असम -932 (923)8. पश्चिम बंगाल- 934 (917)9. झारखंड- 941 (922)10.उड़ीसा- 972 (971)
11. छत्तीसगढ़ -990 (985)12.मध्य प्रदेश- 920 (912)13.गुजरात -921 (934)14.दमन एवं दीव -709 (969)15.दादर एवं नगर हवेली- 811 (952)16.महाराष्ट्र- 922 (934)17.आंध्र प्रदेश -978 (972)18.कर्नाटक- 964 (960)19.गोवा -960 (967)20.लक्ष्यद्वीप- 947 (943)
21.केरल- 1058 (1036)22.तमिलनाडु- 986 (974)23.पांडिचेरी- 1001 (979)24.जम्मू और कश्मीर- 900( 876)25.हिमाचल प्रदेश- 970 (976)26.पंजाब- 874 (882)27.चंडीगढ़- 773 (790)28.उत्तराखंड -964 (936)29.हरियाणा- 861 (865)30.दिल्ली- 821 (827)31.राजस्थान- 922 (910)32.उत्तर प्रदेश- 898 (876)33.बिहार -921 (907)34. सिक्कम- 875 (878)35.अंडमान निकोबार द्वीप समूह 846 (818)

महिला राष्ट्रपति वाले देश में महिलाएँ असुरक्षित


वन्दानाबीबीसीसंवाददाता
“भारत की राष्ट्रपति एक महिला है?...इट्स ग्रेट. मेरे देश में तो अब तक ऐसा नहीं हो पाया है, पता नहीं होगा भी या नहीं.” कुछ दिन पहले एक अमरीकी मित्र को गणतंत्र दिवस के मौके पर परेड की सलामी लेते हुई भारतीय राष्ट्रपति की तस्वीरें दिखा रही थी. भारत की राष्ट्रपति एक महिला है. ...अब तक इस तथ्य से अंजान उस अमीरीकी मित्र के मुँह से बस यही प्रतिक्रिया निकल रही थी.- इट्स ग्रेट, ए मैटर ऑफ़ ऑनर, यूयर इकॉनोमी इज़ डूइंग ग्रेट ओल्सो. अमरीका और फ़्रांस जैसे दुनिया के कई विकसित देशों में भी अब तक महिला राष्ट्रपति नहीं हुई हैं. भारत के लिए फ़ख़्र की बात तो है-मन ही मन ये सोचकर मैं मंद मंद मुस्कुरा रही थी.
इस लेख पर अपनी राय भेजिए
लेकिन उसकी एक अन्य साथी की टिप्पणी ने मुझे तस्वीर के दूसरे पहलू पर ग़ौर करने को मजबूर किया. लंबे भारत प्रवास से लौटी उस महिला का अनुभव कुछ ख़ास अच्छा नहीं था. तल्ख़ लहजे में उसने पूछा- क्या ज़्यादातर महिलाओं के साथ भारत में ऐसा ही बर्ताव होता है.
महिला दिवस पर विशेष सामग्री
इस आवाज़ की तल्ख़ी देर तक कानों में गूँजती रही. ज़ाहिर है तस्वीर के इस रुख़ को नज़रअंदाज़ करना मुमकिन नहीं. जवाब ढूँढने के लिए रोज़मर्रा की ज़िंदगी में झाँकने, अख़बारों की सुर्खियों और टीवी चैनलों की हेडलाइन पर नज़र डालने भर की ज़रूरत है. छेड़छाड़, बदसलूकी, बलात्कार, घर में प्रताड़ना...देश में जैसी एक सकारात्मक कहानी के पीछे कई कही-अनकही नकारात्मक कहानियाँ छिपी रहती हैं. अपराधों की 36617 बदसलूकी के मामले, 19348 बलात्कार, 17414 अपहरण, 7618 दहेज से जुड़े मामलों में मौतें और 63128 प्रताड़ना के मामले -राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो की ताज़ा रिपोर्ट (वर्ष 2006) के आँकड़े भयावह तस्वीर पेश करते हैं. वर्ष 2006 में महिलाओं के प्रति अपराध के कुल एक लाख 64 हज़ार 765 मामले दर्ज किए गए. वर्ष 2005 में 1,55,553 मामले दर्ज हुए यानि वर्ष 2005 के मुकाबले 2006 में 5.9 फ़ीसदी को बढ़ोत्तरी. और 2002 के मुकाबले 15.2 की वृद्धि. बलात्कार भारत में इस समय सबसे तेज़ी से बढ़ता अपराध है. एक अनुमान के मुताबिक 1971 के बाद से बलात्कार की घटनाओं में 678 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. राष्ट्रीय रिकॉर्ड्स अपराध ब्यूरो की नई रिपोर्ट में अगर बलात्कार करने वालों के प्रोफ़ाइल का अध्ययन करें तो परेशान करने वाले तथ्य सामने आते हैं. रिपोर्ट के मुताबिक बलात्कार करने वालों में से 75 फ़ीसदी लोग जान-पहचान वाले होते हैं जिसमें परिवार के सदस्य, अभिभावक, पड़ोसी और रिश्तेदार शामिल हैं. महज़ आँकड़ें नहीं हैं ये...स्रोत:राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्डस yooro
भारत में रहने वाली महिलाएँ तो अपराधों का शिकार बनती ही हैं, पिछले कुछ सालों में विदेशी महिला सैलानियों के साथ आपराधिक मामले भी तेज़ी से बढ़े हैं- गोवा और राजस्थान जैसे लोकप्रिय पर्यटन स्थलों से ऐसे कई मामले सामने आए हैं. अपराधों का ये सिलसिला कस्बों और नगरों में ही नहीं है, बड़े शहरों का भी हाल बुरा है. राष्ट्रीय अपराध दर 14.7 के मुकाबले शहरों में अपराध की दर 20.3 प्रतिशत है. देश की राजधानी दिल्ली का हाल सबसे बुरा है. जहाँ देश की राजधानी ही इतनी असुरक्षित हो, वहाँ दूसरी जगहों पर क्या अपेक्षा की जा सकती है. 167.7 की राष्ट्रीय अपराध दर के मुकाबले दिल्ली में ये दर 357.2 है यानी दोगुनी. हर साल आने वाले तमाम ऑंकड़ों की लंबी चौड़ी फ़ेहरिस्त में ये महज़ एक अन्य सूची नहीं है. इन अपराधों के पीछे सामाजिक, क़ानूनी और सांस्कृतिक..कई कारण हैं. समाज इसका दोष क़ानून पर डालकर फ़ारिग हो जाता है तो क़ानून सामाजिक बदलाव की दुहाई देता है.ये सच है कि आज भारत की राष्ट्रपति महिला है, दुनिया की सबसे ताक़तवर महिलाओं की सूची में भारत की सोनिया गांधी का नंबर छठा है, सानिया मिर्ज़ा विश्व की शीर्ष टेनिस खिलाड़ियों में से एक हैं, महिलाएँ आज कई ऐसे पेशों में धाक जमा रही हैं जहाँ पहले उन्होंने कभी क़दम नहीं रखा. इसमें बेशक हमें गर्व महसूस करना चाहिए. लेकिन इस बदलते, चमकते, आर्थिक प्रगति करते भारत में महिलाओं का एक वर्ग आज भी हाशिए पर रहता है, असुरक्षित है. काश के भारत इन्हें भी स्वाभिमान भरा सुरक्षित जीवन दे पाए ताकि दोबारा कोई आकर ये न पूछे कि क्या भारत में महिलाओं के साथ ऐसा बर्ताव होता है जैसा उस विदेशी सैलानी ने पूछा था.

'विवाहेतर संबंधों पर झूठ बोलना स्वीकार्य'

महिलाएँ अपने सम्मान की रक्षा के लिए विवाहेतर संबंधों के बारे में झूठ बोल सकती हैं: अदालत
इटली की सर्वोच्च अदालत ने फ़ैसला सुनाया है कि महिलाएँ अपने विवाहेतर संबंधों के बारे में झूठ बोल सकती हैं, फिर वह चाहे न्यायिक जाँच का मामला ही क्यों न हो. अदालत ने तर्क दिया है कि महिलाएँ अपने सम्मान की रक्षा के लिए ऐसा कर सकती हैं. ये फ़ैसला एक 48-वर्षीय महिला कार्ला की अपील स्वीकार करते समय सुनाया गया है जिसे पुलिस को झूठा बयान देने के लिए दोषी ठहराया गया था.
मामला कार्ला के अपने प्रेमी गियोवानी को अपना मोबाइल फ़ोन देने का था. महिला के प्रेमी गियोवानी ने उस फ़ोन का इस्तेमाल महिला के पति विनसेंजो को कॉल करके उसका अपमान करने के लिए इस्तेमाल किया. कार्ला और उनके पति विनसेंजो के संबंध बिगड़े हुए थे. 'क़ानून का उल्लंघन नहीं किया'
पहले स्थानीय अदालत में मामला चला और उस समय कार्ला के प्रेमी गियोवानी को गालियाँ देने का दोषी पाया गया. साथ ही कार्ला को इस अपराध में उनका साथ देने का दोषी पाया गया था.
लेकिन कार्ला की अपील सुनने वाली अदालत ने ये मानने से इनकार कर दिया कि महिला ने क़ानून का उल्लंघन किया है. अदालत का कहना था कि यदि विवाहेतर संबंध के छिपाने के लिए सच्चाई से कुछ छेड़छाड़ की भी गई तो ऐसा करना क़ानूनी रूप से वैध था. अदालत का ये भी मानना था कि ऐसा न किया गया होता तो इससे दोस्तों और परिवार के सदस्यों के बीच महिला के सम्मान को क्षति पहुँचती.
फ़िलहाल ये स्पष्ट नहीं है कि ये आदेश पुरुषों पर भी भी इसी तरह से लागू होगा या नहीं.

'नहीं थमा है महिलाओं के साथ भेदभाव'

रिपोर्ट के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का पालन हर देश नहीं कर रहे हैं संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के लगभग हर देश में महिलाओं के साथ भेदभाव बरता जाता है और ग़रीबों में 70 फ़ीसदी महिलाएँ हैं. रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की कुल उपयोगी भूमि का सिर्फ़ एक फ़ीसदी महिलाओं के नाम दर्ज है.ये रिपोर्ट तैयार की है संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयुक्त लुईज़ आर्बर ने. उनका कहना है कि शादी शुदा ज़िंदगी में महिलाओं के साथ बलात्कार बदस्तूर जारी है और 53 देशों ने अभी तक इसे अपराध नहीं माना है. रिपोर्ट कहती है कि संयुक्त राष्ट्र के 185 सदस्य देशों ने वादा किया था कि वे वर्ष 2005 तक उन सभी क़ानूनों को ख़त्म कर देंगे जो पुरुषों के पक्ष में झुके हुए हैं लेकिन इसके बावजूद महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हो रहा है. कई देशों में लड़कियों और लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र सीमा अलग-अलग है जहाँ लड़कियों की उम्र सीमा हमेशा कम रखी जाती है फ़रेडा bada रिपोर्ट तैयार करने में मदद करने वाली फ़रेडा बांडा ने पत्रकारों से कहा कि तलाक़, मातृत्व सुविधाओं और पेंशन से संबंधित क़ानून महिलाओं के साथ भेद-भाव करता हैं. उन्होंने अलग-अलग देशों में शादी के लिए लड़कियों की क़ानूनी उम्र सीमा पर टिप्पणी करते हुए कहा, "कई देशों में लड़कियों और लड़कों के लिए शादी की न्यूनतम उम्र सीमा अलग-अलग है जहाँ लड़कियों की उम्र सीमा हमेशा कम रखी जाती है." बांडा का कहना है, "उदाहरण के लिए अगर किसी लड़की की शादी 14 साल में होती है तो इससे उसकी शिक्षा पर असर पड़ता है और जल्दी बच्चे पैदा होते हैं." रिपोर्ट के अनुसार अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानूनों का हर देश में पालन नहीं किया जा रहा है.

गुरुवार, 31 जनवरी 2008

मुस्लिम महिला ने पढ़ाई नमाज़

क़रीब बराबर संख्या में महिलाओं और पुरूषों ने नमाज़ पढ़ी अमरीका में एक मुस्लिम महिला प्रोफ़ेसर ने शुक्रवार को इतिहास रच दिया जब उन्होंने लगभग 100 लोगों को नमाज़ पढ़ाई। अमीना वदूद ऐसा करने वाली पहली मुसलमान महिला हैं। उनसे पहले केवल पुरूष ही इमाम हुआ करते थे। अमीना का कहना है कि उन्होंने ये क़दम इसलिए उठाया है क्योंकि उनका मानना है कि इस्लामी दुनिया में महिलाओं को भी हर मामले में पुरूषों के बराबर के अधिकार होने चाहिए. ने कहा,"इस्लाम में औरतों और मर्दों के बीच समानता का मुद्दा बहुत महत्वपूर्ण है और मुसलमानों ने दुर्भाग्य से इतिहास का बहुत ही संकीर्ण दृष्टिकोण से अर्थ निकाला है". अमरीका के वर्जीनिया राज्य में इस्लामी अध्ययन विभाग की प्रोफ़ेसर हैं.मगर उनके इस प्रयास की राह में कई अड़चनें भी आईं और कई लोगों ने इसका विरोध भी किया है.गिरिजाघर में मुसलमानों ने दुर्भाग्य से इतिहास का बहुत ही संकीर्ण दृष्टिकोण से अर्थ निकाला है अमीना इस विशेष नमाज़ को एक गिरिजाघर में आयोजित करवाना पड़ा क्योंकि कई मस्जिदों ने इसके लिए जगह देने से मना कर दिया। हारकर आयोजकों ने इसके लिए जब एक भारतीय कला प्रदर्शनी केंद्र को चुना तो उस जगह को भी बम से उड़ा देने की धमकी दी गई। आख़िर में न्यूयॉर्क में मैनहटन के सेंट जॉन द डिवाइन चर्च में नमाज़ पढ़ी गई। नमाज़ के लिए लगभग 100 लोग इकट्ठा हुए जिनमें लगभग 40 पुरूष और कुछ बच्चे भी थे। विरोध-समर्थन अगर कोई महिला विद्वान हो या कोई पुरूष विद्वान हो, वे अगर नमाज़ पढ़ाना चाहते हैं तो पढ़ाएँ,ये तो बस इबादत के बारे में है युसूफ़ अहमद
प्रोफ़ेसर वदूद के नमाज़ पढ़ाने का समर्थन तो हुआ है मगर अधिकतर मुसलमानों ने इसका विरोध किया है.समर्थकों का कहना है कि इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जिसमें किसी महिला पर महिलाओं और पुरुषों को नमाज़ पढ़ाने पर पाबंदी हो.नमाज़ पढ़ने के बाद बाहर निकले पाकिस्तानी मूल के युवक युसूफ़ अहमद ने कहा,"मुझे तो कोई फ़र्क़ नहीं लगा, अगर कोई महिला विद्वान हो या कोई पुरूष विद्वान हो, वे अगर नमाज़ पढ़ाना चाहते हैं तो पढ़ाएँ,ये तो बस इबादत के बारे में है".
जेबईसाईयों में महिला पादरी नहीं बन सकतीं, वैसे ही कोई मुस्लिम महिला भी इमाम नहीं बन सकती

नुसरत ahiin विरोध करनेवालों में से कई तो गिरिजाघर के बाहर भी जमा हुए और प्रदर्शन किया.
एक युवती नुसरत ने इसे इस्लाम के ख़िलाफ़ बताया।
उन्होंने कहा,"इस्लाम में किसी महिला को पेश इमाम बनाने की इजाज़त नहीं है. 1400 साल से इस्लाम में पुरूष ही नमाज़ पढ़ा रहे हैं तो इसमें बदलाव क्यों हो. जैसे ईसाईयों में महिला पादरी नहीं बन सकतीं, वैसे ही कोई मुस्लिम महिला भी इमाम नहीं बन सकती".
वैसे इस पूरे आयोजन में दो घंटे लगे जिसके बीच पूरे गिरिजाघर को पुलिस ने घेरे में ले रखा था और ज़बरदस्त चौकसी बरती जा रही थी.
यहाँ तक कि अमीना वदूद स्वयँ नमाज़ पढ़ने के बाद गुप-चुप तरीक़े से बाहर चली गईं.

'आत्मदाह कर रही हैं अफ़ग़ान महिलाएँ'

हाल में मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने महिलाओं की बुरी दशा पर रिपोर्ट जारी की थी
अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय ग़ैरसरकारी संगठनों के अनुसार देश में महिलाओं के आत्महत्या करने के मामले बढ़ रहे हैं। उनका कहना है कि दिन-प्रतिदिन यातनाएँ सहने के कारण और ज़बरदस्ती शादी करवाए जाने से तंग आकर महिलाएँ आत्महत्या कर रही हैं। इन संगठनों के अनुसार पूरी तरह आँकड़े जुटाना और स्थिति का आकलन करना मुश्किल है लेकिन केवल राजधानी काबुल में ही ख़ुद को आग लगाकर आत्महत्या करने वाली महिलाओं की संख्या पिछले साल के मुकाबले में दोगुना हो गई है. काबुल में इस साल आत्मदाह के 36 मामले सामने आए हैं. श्चिमी अफ़ग़ानिस्तान के हेरात शहर में तो हर रोज़ इस तरह के मामले सामने आ रहे हैं. ग़ैरसरकारी संगठन मेडिका मॉंडिएल के प्रवक्ता ने बीबीसी को बताया, "ये मामला युवाओं से संबंधित है और आत्मदाह करने वाली अधिकतर लड़कियाँ नौ से 40 साल में हैं. वे ऐसा इसलिए कर रही हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके लिए अपनी समस्याओं से बाहर निकलने का और कोई रास्ता नहीं है." मेडिका मॉंडिएल के प्रवक्ता का कहना था कि हो सकता है कि ये ईरान के प्रभाव में हो रहा हो क्योंकि वहाँ ये प्रथा आम है. हाल में मानवाधिकार संस्था ह्यूमन राइट्स वॉच ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि अफ़ग़ानिस्तान में तालेबान को सत्ता से बेदख़ल करने के बाद से महिलाओं की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है.
साभार दीन्क्क भाष्कर

मंगलवार, 29 जनवरी 2008

फ्लोरिडा प्राइमरी में हिलेरी की जीत


एजेंसी
वॉशिंग्टन. अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन ने फ्लोरिडा प्राइमरी में जीत हासिल की है। माना जा रहा है कि 5 फरवरी को होने वाले सुपर चुनाव अभियान के लिए यह जीत हिलेरी के लिए महत्वपूर्ण है। यहां निकटतम प्रतिद्वंद्वी बैरेक ओबामा को आसानी से हरा दिया। हिलेरी को 48 प्रतिशत मत मिले जबकि ओबामा 30 प्रतिशत। तीसरे नंबर पर रहे पूर्व सीनेटर जॉन एडवर्ड्स को जिन्हें 14 प्रतिशत वोट मिले। हिलेरी को सीएनएन ने विजयी प्रांेजेक्ट किया है क्योंकि यह परिणाम वोटों की गिनती के दौरान आए हैं।

अमेरिका में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के लिए चल रहीं चयन प्रक्रिया में डेमोक्रेटिक पार्टी की सीनेटर हिलेरी क्लिंटन ने नेवादा में अपने नजदीकी विरोधी उम्मीदवार बराक ओबामा को हरा दिया है।
गौरतलब है कि आयोवा में ओबामा के खिलाफ कमजोर पड़ी हिलेरी ने अपने अभियान में तेजी लाई जिसका परिणाम सबसे पहले न्यूहैपशर में देखने को मिला था और अब एक बार फिर नेवादा में हिलेरी को मिली जीत उनकें लिए खास महत्व रखती है । नेवादा में श्रमिकों का समर्थन ओबामा के साथ था लेकिन हिलेरी क्लिंटन को पारम्परिक डेमोक्रेट उम्मीदवारों का समर्थन मिला जिससे वो यहां जीतने में सफल रही हैं। डेमोक्रेटिक पाट्री के एक अन्य उम्मीदवार जॉल एडवर्डस पांच प्रतिशत वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहें।


Denik bhashkar

बेनजीर हत्याकांड: हत्यारे की पहचान हुई

एजेंसी
इस्लामाबाद. बेनजीर की हत्या के आरोप में गिरफ्तार 15 वर्षीय एतिजाज शाह ने बेनजीर को मारने वाले आत्मघाती हत्यारे की पहचान कर ली है। हत्यारे का विवरण देते हुए पुलिस अधिकारी ने बताया कि हत्यारे के नाम बिलाल था। वह दक्षिण वाजिरिस्तान के आदिवासी इलाके का रहने वाला था। 15 वर्षीय एतिजाज शाह ने पूछताछ के दौरान बताया कि वह तालिबान कंमाडर बेतुल्ला मेहसुद द्वारा भेजी गई 5 सदस्यों की टीम का सदस्य था। इन लोगों को बेनजीर की हत्या का जिम्मा सौंपा गया था। अधिकारियों ने बताया कि एतिजाज शाह ने यह भी दावा किया है कि वो बेतुल्ला से मिला करता था, लेकिन अभी इस बात की पुष्टि नहीं हुई है।

महिलाओं को आरक्षण देने वाली पहली पार्टी भाजपा


एजेंसी
नई दिल्ली. भारतीय जनता पार्टी महिलाओं को संगठन में 33 प्रतिशत आरक्षण देने वाली पहली राजनीतिक पार्टी बन गई है। हालांकि भाजपा ने अपने संसदीय बोर्ड में महिलाओं को आरक्षण देने का फैसला नहीं किया है। इस प्रस्ताव की घोषणा करते हुए भाजपा महासचिव सुषमा स्वराज ने कहा कि पार्टी के संविधान में सात संशोधन किए जाने के बाद महिलाओं को संगठन की स्थानीय इकाई से लेकर राज्य और केंद्रीय समिति में भी 33 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा। इस आरक्षण के बावजूद समितियों के अध्यक्ष पद के लिए कोई आरक्षण नहीं है। संसदीय बोर्ड में आरक्षण को लेकर स्वराज ने कहा कि इस मामले में पार्टी में एक राय नहीं बन सकी लेकिन आने वाले समय में बोर्ड में भी महिलाओं को आरक्षण दिया जा सकता है। स्वराज ने यह भी साफ किया कि यह आरक्षण तब लागू नहीं होगा जब चुनाव के दौरान उम्मीदवारों को टिकट देने का समय आएगा। इस प्रस्ताव की घोषणा पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने की और पार्टी के राष्ट्रीय परिषद सदस्यों ने इसे एकमत से पास कर दिया।

दो बहनों ने एक लड़के से शादी रचाई


29 जनवरी २००८ सर्विसपटना। एक भविष्यवक्ता की भविष्यवाणी पर पिता ने अपनी दो बेटियों की शादी एक लड़के से कर दी। पटना के पास फुरवारी शरीफ में स्थित शिव मंदिर में दूल्हा शैलेंद्र कुमार उर्फ पिंटू ने दो बहनों आरती कुमारी और पूजा कुमारी से शादी रचाई।

इंडो-एशियन न्यूज

गुरुवार, 24 जनवरी 2008

रिश्तों की परिभाषा और अधिकार

विमला patil
दृष्टिकोण. हिंदू उत्तराधिकार कानून में परिवार और शादी पर गहरा जोर दिया गया है। शादी से बनने वाले परिवार और संयुक्त परिवार को अच्छे से परिभाषित करते हुए इसके दायरे में आने वाले सदस्यों की संपत्ति और देखभाल के अधिकार बांटे गए हैं। 1956 में हिंदू उत्तराधिकार कानून के पारित होने तक महिलाओं का पैतृक संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं होता था, न ही वे उत्तराधिकारी मानी जाती थीं।
उनकी कुल जमा संपत्ति वह 'स्त्रीधन' होता था, जो उन्हें शादी के दौरान मायके से दहेज के रूप में मिलता था। इसमें वह उपहार भी शामिल होते थे, जो उन्हें समय-समय पर परिजन त्योहारों या विभिन्न अवसरों पर दिया करते थे। तलाक या अलगाव की स्थिति में उन्हें वही गुजाराभत्ता मिलता था जो अदालत तय करती थी या परिवार अदालत के बाहर सदाशयता दिखाते हुए निर्धारित कर देते थे।
इस स्थिति में 1956 के हिंदू उत्तराधिकार कानून ने उनकी स्थिति में क्रांतिकारी बदलाव लाने का काम किया। लड़कियों को पैतृक संपत्ति में वारिस माना गया। इसके बाद 2005 में इसी कानून ने संपत्ति के बंटवारे में भी बेटों के समान उन्हें समान अधिकार दे दिया। अभी तक संपत्ति से जुड़े सभी कानून पति-पत्नी के वैधानिक रिश्ते और उनसे उत्पन्न होने वाली संतान की परिभाषा के भीतर ही तय हो रहे थे।
ऐसे में हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अरिजीत पसायत वाली पीठ ने इस कानून के तहत 'लिव इन' संबंधों से उत्पन्न संतान को भी पिता की संपत्ति में समान अधिकार दे एक नया आयाम दे दिया है। हमारे परंपरागत समाज पर इस निर्णय का क्या प्रभाव पड़ेगा यह देखने वाली बात होगी। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ की यह व्यवस्था उन सभी दंपतियों पर लागू होती है, जिन्होंने शादी नहीं की, लेकिन वे पति-पत्नी की तरह लंबे समय से साथ-साथ रह रहे हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि पीठ ने 'लिव इन' संबंधों से उत्पन्न बच्चों की निदरेषता व मासूमियत के आधार पर यह व्यवस्था दी है। पीठ को लगा होगा कि ऐसे संबंधों से उपजे बच्चों का अपने अभिभावकों के 'बगैर शादी साथ-साथ रहने के' निर्णय में कोई दखल नहीं होता है। फिर वे इसकी सजा क्यों भुगतें। इस क्रम में अभी यह देखना बाकी है कि इस निर्णय का वैध शादी से उपजे बच्चे और पत्नी पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
जैसा सभी जानते हैं कि आमतौर पर कोई भी कानून संसद में पास होने के बाद ही अस्तित्व में आता है। इसी तरह कई कानून अदालती निर्णय से भी समय-समय पर बनते हैं। संपत्ति और परिवार से जुड़े कानून इसी दूसरे वर्ग में आते हैं। किस तरह कोई शादी वैधानिक मानी जाएगी, किस तरह पति-पत्नी का दर्जा और अधिकार तय होंगे और किस तरह बच्चे या परिवार के अन्य सदस्य संपत्ति के अधिकारी बनेंगे सरीखे प्रश्न न सिर्फ संसद द्वारा पारित कानून से परिभाषित होते हैं, बल्कि इनमें न्यायिक स्तर पर सामूहिक बुद्धिमत्ता और अनुभव भी शामिल होता है।
सचाई तो यह है कि न्यायाधीश अरिजीत पसायत ने स्वयं स्वीकार किया है कि 'लिव इन' संबंधों से उत्पन्न बच्चे के संपत्ति के अधिकार से न सिर्फ भविष्य के निर्णय प्रभावित होंगे, बल्कि लंबे समय तक इन पर बहस भी चलेगी। प्रथम दृष्टया तो इससे मासूम बच्चे को आर्थिक सहायता ही प्राप्त होगी, जिसकी कोई गलती नहीं है। समाज के कुछ लोगों का मानना है कि यह वास्तव में एक सकारात्मक कदम है।
खासकर यह देखते हुए कि हम अब 21 वीं सदी में रह रहे हैं, जहां स्त्री-पुरुष के बीच नित नए संबंध सामने आ रहे हैं। लंबे समय से लिव इन संबंधों को कानूनन शादी की तरह देखने और उसे वही अधिकार देने के लिहाज से यह एक अच्छा कदम है। हालांकि एक प्रश्न यहां भी सिर उठाता है कि एक रात के संबंध से उपजी संतान की क्या हैसियत होगी? वे भी मासूम होते हैं और उन्हें भी नहीं मालूम होगा कि आखिर उसे जन्म क्यों दिया गया, खासकर जब उसके माता-पिता शादी के बंधन में नहीं बंधना चाहते थे? उनकी मां भी पिता की पैतृक संपत्ति में हिस्से की मांग कर सकती हैं।
ऐसे में भ्रम की स्थिति आ सकती है कि आखिर लिव इन संबंधों के दौरान जन्मे बच्चे को कितनी अवधि के बाद पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिल सकता है? पैतृक संपत्ति में हिस्सा हासिल करने के लिए अभिभावकों को कितने समय तक साथ-साथ रहना जरूरी होगा? अलग-अलग जाति या धर्म के होने पर क्या स्थिति होगी? हालिया अदालती निर्णय के आलोक में ये प्रश्न स्वाभाविक तौर पर सिर उठाते हैं। संभव है कि इनके जवाब आते वक्त के साथ ही मिलें।
फिर भी समान नागरिक संहिता के अभाव में और कई निजी कानूनों के लागू होने के कारण बहुत विसंगतियां हैं। यही वजह है कि परस्पर विरोधाभासी प्रतीत होने वाले निर्णय तर्क-कुतर्क के केंद्र बन जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय का विरोध करने वाले खेमे का तर्क है कि यह निर्णय शादी रूपी संस्था के अस्तित्व को ही चुनौती देता है। सदियों से प्रत्येक समाज में स्त्री-पुरुष के मिलन को शादी के पवित्र बंधन से ही निरूपित किया गया है।
हमारे देश में एक लड़की जब शादी करती है तो वह सिर्फ पत्नी या मां ही नहीं बनती, बल्कि उस परिवार की एक सदस्य हो जाती है। उसे शादी के साथ ही ढेर सारे अधिकार और दर्जे मिलते हैं। जरूरी नहीं कि उसे प्राप्त होने वाला दर्जा आर्थिक ही हो। वह अपने पति और उसके परिवार के साथ धार्मिक और सामाजिक क्रियाकलापों में शादी और उसके परिणामस्वरूप मिले पत्नी के दर्जे के कारण ही भागीदारी कर पाती है।
अगर ऐसा न होता तो फ्रांसीसी राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी के साथ आने वाली उनकी गर्लफ्रेंड कार्ला ब्रूनी के आधिकारिक दर्जे को लेकर इतनी हाय-तौबा नहीं मचती। यही भारत की सामाजिक मान्यता है। ऐसे में यह निर्णय शादी की पवित्रता को आघात पहुंचाने वाला है। यह अलग बात है कि महानगरों में रहने वाले युवा वर्ग को सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय सामाजिक बदलाव की दिशा में उठा एक कदम प्रतीत हो रहा है। इससे लिव इन संबंधों में रह रहे दंपती भी अब गर्व के साथ सिर उठाकर चल सकते हैं। उन्हें अब इस तरह के संबंधों को लेकर कोई शर्म नहीं आएगी। हालांकि संयुक्त या बड़े परिवारों में लिव इन संबंधों से उपजे बच्चे और उसके संपत्ति के अधिकार को लेकर खासी असुविधा महसूस की जा सकती है। विधि विशेषज्ञों का भी मानना है कि लिव इन संबंधों में पत्नी की तरह रहने वाली महिला को पुरुष की संपत्ति में कोई अधिकार हासिल नहीं है। वह यहां भी पुरुष की इच्छा की ही पात्र रहेगी।
-लेखिका फेमिना की पूर्व संपादक हैं।

भारतीयों का ब्रिटेन में सम्मान

एजेंसी लंदन.
शानदार गायकी के दम पर पंजाबियों को नचाने वाले मलकीत सिंह ने अंग्रेजों का भी दिल जीत लिया है। मशहूर पंजाबी गायक मलकीत सिंह को क्वीन मैंबर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर मैडल से सम्मानित करने जा रही हैं। मलकीत सिंह क्वीन की प्रतिष्ठित ऑनर्स लिस्ट में शामिल होने वाले पहले पंजाबी गायक हैं। इस सम्मान से उत्साहित मलकीत सिंह ने कहा कि मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्वीन से मिलने पर मैं उन्हें क्या कहूंगा, मैं पूरे जोर से बल्ले-बल्ले या चक्क दे फट्टे कहकर उनका अभिवादन करना चाहता हूं। मैंने अपने म्यूजिक पर बहुत मेहनत की है, लेकिन मेरा संगीत सफर असल में ब्रिटेन से शुरू हुआ। जालंधर के हुसैनीपुरा में जन्मे मलकीत सिंह 1984 में ब्रिटेन गए थे।
मैडल के अन्य विजेता
नाम किस क्षेत्र के लिए
सुभाष आनंद हायर एजूकेशन
किरण बाली कम्युनिटी रिलेशंस
देबजानी चटर्जी लेखन
गुरबचन ढींढसा कम्युनिटी रिलेशंस
तलत जावेद एजूकेशन
सुखविंदर जोहल आर्ट्स
प्रदीप बलबीर मेडिसिन
आरती कुमार हायर एजूकेशन
अश्विन शाह हैल्थकेयर
अमजीत तलवार म्यूजिक इंडस्ट्री
राजेंदर रतन डेंटिस्ट्री

दुबई में भारतीय कामगार मृत

दुबई. दुबई में एक 54 वर्षीय भारतीय मजदूर अपने कमरे में मृत पाया गया।
पुलिस ने बताया कि चंद्रन पिल्लै जीबेल अलि स्थिति लेवर कैंप में अपने कमर में पंखे से लटका पाया गया। उन्होंने कहा कि आशंका है कि पिल्लै कमरे में खुद को बंद करने के बाद फांसी लगाई है। मृत्यु के कारणों की प्रारंभिक जांच दुबई पुलिस कर रही है।
पिल्लै के साथ रहने वाले साथी ने बताया कि शुक्रवार की शाम को दो अन्य साथियों के साथ हमलोगों ने खाना था और उस समय वे एकदम ठीकठाक लग रहे थे।
मीडिया के अनुसार पिल्लै 12 साल पहले कंपनी से जुड़े थे और वे एक हंसमुख व्यक्ति थे।

संभव है लांग डिस्टेंस रिलेशनशिप

रिलेशनशिप
वर्तमान में कामकाजी जोड़े के सामने काम के सिलसिले में एक-दूसरे से लंबी दूरी की स्थिति भी बन जाती है। ऐसे में अपने रिश्तों को मजबूती कैसे दी जाए?
स्टेप 1- लांग डिस्टेंस रिलेशनशिप्स में सबसे पहले हमें एक-दूसरे को लेकर अपनी उम्मीदों और आकांक्षाओं पर क्लीयर माइंड रखना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही गाइडलाइंस तय करना भी बहुत जरूरी हैं। यह सारी बातें इस पर भी लागू करती हैं कि आप दोनों अपनी रिलेशनशिप को लेकर क्या सोच रखते हैं, या फिर भविष्य में इसे किस मुकाम तक ले जाना चाहते हैं। दूर रहते हुए आपको यह ध्यान रखना चाहिए कि आप में से किसी एक को अपना शहर छोड़कर दूसरे के पास आना पड़ेगा।
स्टेप 2- दूर से रिश्ते निभाने वालों को यह मालूम होना चाहिए कि अपने पार्टनर से कब, किस जगह और कैसे कांटेक्ट करना है। ऐसा इसलिए क्योंकि कम्यूनिकेशन के बगैर आपको रिश्ते का कोई बेस नहीं है।
स्टेप 3- ई-मेल का ज्यादा से ज्यादा उपयोग करें। तकनीक के क्षेत्र में आगे बढ़ने के बाद यह बातचीत का सबसे अच्छा और सस्ता माध्यम बनकर सामने आया है। इसका खर्चा भी फोन बिल की तरह नहीं होगा। यह आपको लंबी और ज्यादा बातें लिखने की आजादी भी देता है। सिर्फ यही नहीं बोलते वक्त आपने जो बोला वो मुंह से निकल जाता है। लेकिन इसमें आपके पास सोचने का मौका भी होता है। साथ ही इस सुविधा से आपकी बात मनचाही जगह पर घंटो की जगह मिनटों में पहुंचती है।
स्टेप 4- इंस्टेंट मेसेजिंग सर्विस जिसे आम भाषा में चैटिंग कहा जाता है भी आप जैसे लोगों के लिए फायदेमंद हो सकती है। इससे आप रिएलिटी में कम्यूनिकेट करने का लुत्फ उठा सकते हैं।
स्टेप 5- लांग डिस्टेंस रिलेशनशिप में इंवेस्टमेंट भी बराबर का होना चाहिए। इसमें बातचीत के अलावा ट्रेवलिंग का खर्च भी शामिल है। चूंकि यह रिश्ता दूर बैठकर चल रहा है इसलिए कोशिश करें कि किसी पर भी अतिरिक्त फायनेंशियल भार न आए।
स्टेप 6- जब आप हकीकत में एक साथ हों तब भी एक-दूसरे के साथ को सराहें और अच्छा समय गुजारने की कोशिश करें। ध्यान रहे कि ओवर शिडच्यूलिंग न हो।
sabhar wama

तलाक से पर्यावरण को भी नुकसान

भास्कर नेटवर्क
नई दिल्ली. किसी भी पुरुष या महिला के लिए तलाक एक जिंदगी के अंत जैसा ही है। तलाक, इन तीन शब्दों से एक परिवार का पूरा सुख-चैन, खुशियां, प्यार और विश्वास टूट जाता है। विदेशों में भले ही तलाक के मामलों को गंभीरता से न लिया जाए, लेकिन भारत में यह एक गंभीर मसला है। तलाक के मामलों में दिनोंदिन हो रही वृद्धि ने परिवार कल्याण के लिए काम करने वालों की नींद उड़ा दी है। अब हाल ही में एक रिसर्च में सामने आया है कि तलाक से पर्यावरण को भी खतरा पहुंचता है। कैसे होता है पर्यावरण को नुकसानवैज्ञानिकों ने एक शोध में पाया कि ऐसे मामलों में पर्यावरण को भी नुकसान पहुंच रहा है। शोधकर्ताओं के अनुसार अलग-अलग घर होने से बिजली के बिल में 53 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि पानी का उपयोग 42 प्रतिशत तक बढ़ गया है। यह सर्वे 12 देशों में किया गया है। अकेले अमेरिका में 2005 में तलाक के बाद घरों में 73 अरब किलोवॉट बिजली अधिक खर्च हुई है। यह बिजली ब्रिटेन में खर्च होने वाली बिजली की कुल खपत के पांचवे हिस्से के बराबर है। अमेरिका में एक-दूसरे से अलग हुए कपल लगभग 3.85 करोड़ कमरों का उपयोग करते हैं।
आंकड़े कहते हैंआंकड़ों की मानें तो तलाकशुदा दंपति हर मामले में दोगुना खर्च करते हैं। मसलन परिवार बंटने से प्रोडक्ट में 38 प्रतिशत, पैकेजिंग में 42 प्रतिशत, बिजली में में 55 प्रतिशत और गैस में 61 प्रतिशत तक की खपत अधिक होती है। इसके साथ ही जो लोग अकेले रहते हैं वो प्रतिवर्ष डेढ़ टन कचरा निकालते हैं। यह कचरा चार परिवारों के कचरे के बराबर है। इस तरह बढ़ती है प्रॉपर्टीमिशीगन यूनिवर्सिटी के जियानगो लियु ने कहा कि अलग हुए दंपति को रहने के लिए अलग-अलग घर की जरूरत होती है। इस लिहाज से एक घर दो घरों में बंट जाता है। इस शोध की रिपोर्ट प्रोसीडिंग ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुई है। एक अनुमान के मुताबिक शादी के बाद अलग हुए दंपती ज्यादा प्रॉपर्टी खरीदते हैं। रोचक कारणखर्राटे लेना, खाने-पीने की आदतें, ड्रेस सेंस, एक-दूसरे पर हावी होने की कोशिश करना आदि। बढ़ गई अतिरिक्त कमरों की संख्या लियु ने इस रिसर्च में पाया कि पिछले तीन दशकों में अमेरिका में तलाक के बाद अलग रहने वाले कपल्स के लिए अलग-अलग रूम का कल्चर बढ़ा है। इसके चलते वहां 3.85 करोड़ अतिरिक्त कमरे बढ़ गए हैं। इस पर एन्वायर्नमेंट, डेवलपमेंट एंड सस्टेन जर्नल में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अकेले व्यक्ति का अलग रहना भी एक तरह से पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है। कुछ और तथ्यदिल्ली की जिला अदालत में तलाक के लिए हर दिन कम से कम 40 आवेदन आते हैं। हैदराबाद और सिकंदराबाद में यह संख्या 100 से ऊपर पहुंच जाता है। पिछले कुछ सालों में इस संख्या में 15 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। चेन्नई के तीन फैमिली कोर्ट में इस समय तलाक के 3000 मामले चल रहे हैं। गत वर्ष इस अदालत ने तलाक के 1500 मामलों का सफलतापूर्वक निराकरण किया था। इसी वर्ष जनवरी से सितंबर के बीच मुंबई में तलाक के 8941 मामले सामने आए हैं। जुलाई से सितंबर माह के बीच ही तलाक के लिए 2932 आवेदन दर्ज किए गए हैं। युवा जल्दी लेते हैं तलाकमुंबई के एक फैमिली कोर्ट की काउंसलर माधवी देसाई ने बताया कि तलाक लेने वाले ज्यादातर दंपति युवा होते हैं। उनकी उम्र 30 साल से भी कम होती है और शादी को बमुश्किल एक साल भी पूरा नहीं होता है। क्रेटॉन यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर मैरिज एंड फैमिली की एक रिपोर्ट के अनुसार समय, पैसा और सेक्स ये तीन तलाक की मुख्य वजह हैं। इसके अलावा एक-दूसरे से ज्यादा अपेक्षाएं रखना, घर के कामकाज को लेकर होने वाली दिक्कत भी तलाक के अन्य कारण हैं।

दहेज की बलिवेदी पर चढ़ी नवविवाहिता

भास्कर न्यूज
कैथल लैंडरकीमा गांव में दहेज में मोटरसाइकिल की मांग पूरी न करने पर ससुरालवालों ने नवविवाहिता को फांसी देकर मार डाला। पुलिस ने विवाहिता के पति, सास व ससुर के खिलाफ दहेज हत्या का मामला दर्ज किया है। शव का पोस्टमार्टम कर परिजनों को सौंप दिया है।
धौलगढ़ जिला करनाल निवासी रोशनलाल ने बताया कि उसने अपनी बेटी सुदेश (२क्) की शादी मार्च, 2007 में लैंडरकीमा निवासी प्रवीन के साथ की थी। ससुरालवाले अक्सर उसे दहेज कम लाने के ताने देते थे। दहेज की मांग पूरी न करने पर ससुरालवालों ने उसे मोटरसाइकिल लाने की मांग को लेकर परेशान करना शुरू कर दिया।
सुदेश ने उन्हें फोन कर इस बारे में बताया। उन्होंने कुछ दिनों में मांग पूरी करने का आश्वासन भी दिया था। बुधवार सुबह चार बजे उन्हें ससुरालजनों ने फोन कर सूचना दी कि उनकी बेटी ने मकान में फांसी लगाकर जान दे दी है। सूचना पाकर वह मौजिज व्यक्तियों व सगे संबंधियों के साथ गांव लैंडरकीमा पहुंचा तो देखा उसकी बेटी का शव जमीन पर पड़ा हुआ था और उसके गले पर रस्सी के निशान थे। ससुरालवालों पर उसकी बेटी को फांसी देकर मारने का आरोप लगाया है। सदर थाना प्रभारी रामफल सिंह खटकड़ ने बताया कि पुलिस ने पति प्रवीन कुमार, ससुर मंगता राम व सास सोना देवी के खिलाफ दहेज हत्या का मामला दर्ज किया है। उधर, ससुरालपक्ष के प्रवीन व मंगता राम का कहना है सुदेश ने खुद ही फांसी लगाकर जान दी है।
दहेज के लिए सताने पर दो फंसे
दहेज के लिए विवाहिता को तंग करने व मारपीट करने पर पुलिस ने ससुरालपक्ष के दो लोगों पर दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज किया है। मामला दर्ज करने के आदेश कोर्ट ने दिए थे। पबनावा निवासी दर्शना ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई है कि उसकी शादी दस वर्ष पूर्व सजूमा निवासी शमशेर के साथ हुई थी। ससुरालवालों ने उसे दहेज के लिए ताने मारने शुरू कर दिए व मांग पूरी न करने पर उससे मारपीट करने लगे। इससे दुखी होकर वह मायके लौट आई। पुलिस ने उसके पति शमशेर व जेठ जयनाथ के खिलाफ मामला दर्ज किया है।

अंजलि को मिलेगा ‘अमेरिकी नागरिक सम्मान’

एजैंसी.
न्यूयॉर्क अमेरिका में भारतीय मूल की अंजलि भाटिया को विश्व में सांस्कृतिक समझ को बढ़ावा देने के लिए नागरिक कूटनीति का राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित किया जाएगा। १९ साल की अंजलि को १२ फरवरी को वाशिंगटन में आयोजित होने वाले यूएस सेंटर फॉर सिटीजन डिप्लोमेसी के इस अवॉर्ड से सम्मानित किया जाएगा।
सेंटर के श्री हेरियट मेयर फुलब्राइट ने कहा है कि यह हर अमेरिकी नागरिक का फर्ज है कि वे उच्च स्तर के नागरिक राजनयिक बनकर देश और समाज की सेवा करें। अंजलि ने तीन साल पहले अमेरिका और खांडा के बीच रिश्तों को बढ़ावा देने के लिए विद्यार्थियों द्वारा संचालित एक एनजीओ डिस्कवर वल्र्डस की स्थापना की थी। यह एचआईवी/एड्स पीड़ित युवाओं को शिक्षा से जोड़े रखने और अनाथ बच्चे, महिलाओं के सशक्तिकरण के जरिए गरीबी उन्मूलन के लिए काम करता है।

THE SILENT LOVER (i)


by: Sir Walter Raleigh (1552-1618)
ASSIONS are liken'd best to floods and streams:
The shallow murmur, but the deep are dumb;
So, when affection yields discourse, it seems
The bottom is but shallow whence they come.
They that are rich in words, in words discover
That they are poor in that which makes a lover।


नेट से

EVEN SUCH IS TIME

by: Sir Walter Raleigh

VEN such is time, that takes in trust
Our youth, our joys, our all we have,
And pays us but with earth and dust;
Who, in the dark and silent grave,
When we have wandered all our ways,
Shuts up the story of our days:
But from this earth, this grave, this dust,
My God shall raise me up, I trust।

नेट से