बुधवार, 13 अगस्त 2008


बर्ड फुलू से ज्यादा मलेरिया से होती हैं मौत


अलोका
एन. एफ. आई. एवं ए. आई. एफ फेलो’िाप के तहत

झारखण्ड में ब्र्ड फूलू 2007, मलेरिया हर साल -ः पूरे दे’ा में मुर्गी - मुगी मारने का आदे’ा आ गया में ब्र्ड फुलू बीमारी भारत के उन गांव तक पहुंच गयी जहां तक विदे’ाी कम्पनी अपना पैर पसार रही है। यह ऐसी बीमारी है जिससे ग्रामीण क्षेत्र के मुरगे - मुरगी, बत्तख की बिमारी से ज्यादा गांव की परम्परागत लघु उद्योग को समाप्त करने की को’िा’ा है। यह बिमारी से ग्रसीत इलाका भारत का आदिवासी गांव होते है। जहां किसान कें परिवार छोटे मात्रा में प’ाु- पक्षी को घन के रूप में पालते है। मलेरिया भारत के गांव और ’ाहर तमाम स्थानों में फैली हुई है। हर साल मलेरिया से मरने वाले लोगो की संख्या हजारों- हजार है।

यह उस परिवार के लिए छोटा आय को स्रोत रहा है। पूरा का पूरा भारत के गांव में पशु- पक्षी पालने की अपनी अलग परम्परा रही है। मुरगे- मुरगी, भोजन में खाने की पद्वित भी आदिवासी गांव का ही रिवाज रहा। वक्त बदलने के साथ-साथ अन्य समाज के लोगो की पसंदीदा भोजन में मुरगे - मुरगी, खाने का प्रचलन काफी बढ़ गया और वह एक बड़े बाजार mane तबदील होते चले गये यही नही वि’व स्तर पर यह भोजन (चिकन खाने वाले की संख्या में इजाफा हुआ) प्रचलित हो गये जिससे बाजार में मांग के साथ- साथ व्यवसाय भी बन गये।

जहां- जहां बड़ा बाजार पहुचा वहां- वहां भारी संख्या में गरीबों के लधु उद्योग को धक्का लगा वक्त के साथ भोजन के अन्दाज बदले और यह बाजार व्यापक रूप में सिर्फ भारत ही नहीं पूरी दुनिया में फैल गया। चिकन खाने वाले की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। किन्तु अपने परम्परागत प’ाु- पक्षी की परम्परा में थोड़ा बदलाव आया गांव में मुर्गी पालन को पहले के अपेक्षा ज्यादा हुई हैं किन्तु उसकी बड़ी बाजार गांव के हाट होते हैं इस हाट परम्परागत मुर्गे मुर्गीयां बेचे जाती थी। धीरे- धीरे यह बाजार में दे’ाी मुर्गी के स्थान पर बॅायेलर ने जगह लेना ’ाुरू ही नही किया बल्कि उसे दे’ाी बाजार उच्ची दाम पर मुर्गे बेचे जाने लगी। और दे’ाी बाजार पर कब्जा होता चला गया। बडे बाजार ने गांव की आर्थिक व्यवस्था को काफी धका पहुंचाया। गांव के इस प’ाुधन के सामने आर्थिक संकट को देखते हुए मिडिया ने इस ब्र्ड फुलू बीमारी का जबर्दस्त कवरेज दिया। पूरे दे’ा में मुर्गी मारने की खबर अखबारों टी बी में लगातार आने लगे लाखों करोड़ मुर्गी को मार डाला गया। जंगल के किनारे बसे गांव के मुर्गे- मुर्गी को मार कर खतम करने की को’िा’ा की गयी ताकि एक भी परम्परागत मुर्गीयां ना रहे।


गांव में धुमने के क्रम में देखे कि गांव में मुर्गो की बांग नही हो रही हैं कारण पुछने पर पता चला कि गांव के सभी मुर्गी को मार दिया गया हैं। वन गांव के निवासी मणि सिंह मुण्डा ने बताया कि इस बिमारी से मुर्गी मार कर गांव की अर्थ व्यवस्था को तोड दिया गया, उन्होंने बताया कि ब्र्ड फुलू आज से 60 साल पहले नही थी। आदिवासी क्षेत्रो में इस तरह कि बीमारियां नही थी अचानक से को बिमारी उत्पन्न कर गांव के सारे पक्षी को मार डालने की साजि’ा है। हमारे समाज में सामुहिकता का जीवन जीते है। प’ाु- पक्षी भी हमारे कष्ट के दिनों में सहयोगी होते है। अचानक जिस बीमारी का परकोप हमारे गांव में पड़ा उससे लगता है कि अब पैकेट में बंद कर खाना आ रहा जिससे हमारे परम्परागत भोजन को समाप्त करने की योजना है। हमारे यहां गांव में छोटे - छोटे स्थानिय बाजार होते है। मानव आव’यकता के चीजे अपने क्षमता के अनुसार अपने घर में रखते है। उसे समाप्त कर प’चात दे’ाो के प’ाु- पक्षी का बाजार फैलाने की जो योजना चल रही। इसका सबसे बड़ा कारण है ब्र्ड फुलू पुरखा के समय में मुर्गी नही मारा जाता था। आज बाजार इतनी हावी हो गये है कि हमारी स्थानिय बाजार को समाप्त कर हमें पंगु बना देना चाहते है। आज भी भारत का गांव अपने श्रम और अपने परम्परागत चीजों के साथ जीवित है। अन्तराष्ट्रीय बाजार की अफवाह में की मार यदि कोई उठाता है तो वह हैं ग्रामीण लोक अर्थव्यवस्था

अड़की के पंचायत के पड़ाह राजा, और समाजिक कार्यकत्र्र्ता पौलूस हेम्बम ने बताया कि हमारे दे’ा में ब्र्ड फुलू से भी खतरनाक बीमारी मलेरिया है। आज तक हमारे गांव से ब्र्ड फुलू बीमारी से एक व्यक्ति की भी मौत नहीं हुई है। जबकि मलेरिया से लाखों लोगो की जान जा चुकी है। इस मौत की खबर अखबार में स्थानिय स्तर पर आते है। मलेरिया को लेकर पूरे दे’ा का अखबार कभी नही लिखे। जबकि ब्र्ड फुलू बीमारी बाजार के साथ जुड़ी है। जिस कारण इसे पूरे दे’ा के मीडिया ने स्थान दिया। मलेरिया को लेकर जिस तरीके से गांव में काम होना चाहिए नही हो पा रहा। जंगल के अंदर रहने वाले आदिवासी@ दलित समाज इस बिमारी के ’िाकार है। गांव से अस्पताल की दूरी इतनी होती है कि मरीज वहां चल कर जा नही पाएगा। अवगमन का साधन आज भी कई गांव में नही हैं मानव के उपर और प’ाु- पक्षी जानवरों के उपर जिस तरह से हमला हो रहा हैं उससे बाजार की पंजी खेल हैं हमारी चीजे कैसे नष्ट हो इसकी चाहत ताकतवर दे’ा चाहते है।

हर काम दूसरे के लिए करते मिडि़या बाजार के अनुरूप काम करती, ब्र्ड फुलू प’िचम दे’ाों के लिए काम रही है। भारत दुसरे दे’ा के लिए काम कर रही हैं
हमारे यहां बाजार के अनुरूप मिडिया काम करती है। प’िचम दे’ाो के ढ़ाचाों को मजबूत करने का कार्य करती रही है। कुछ ऐसी बिमारियां है जिनका संबध दूषित पेयजल से है और जो प्रतिवर्ष लाखों करोड़ा मौता के लिए जिम्मेदार है। इस तरह की बीमारियों के लिए विदे’ाी पूंजी सहायता प्राप्त करना काफी कठिन है इन बीमारियों में मुख्य रूप से डायरिया, पेचि’ा टाइफाइड हैजा और टी.बी है मलेरिया सहित पानी से संबंधित कई बीमारियां प्रति वर्ष हजारों लोगो की जाने लेती है।

व्यापक स्तर पर देखे तो भारत के गांव @’ाहर के हर व्यक्ति दूषित पेयजल का ’िाकार है। डायरिया से मरने वाला व्यक्ति भारत के गांव का होता है। कुष्ट रोग का ’िाकार भारत के ग्रामीण क्षेत्र के लोग होते है। करोड़ो बच्चे और महिला कुपोषण के ’िाकार है। भुख से मरने वाले लोग भारत के गांव में है। जन स्वास्थ्य पर जो पैसा र्खच होता है। उसका 98 प्रति’ात पैसा लोग खुद बहन करते है। गांवो में अस्पताल है। किन्तु वहां डाक्टर नहीं है। दवाईयां नही है। गांव के स्तर पर जो बिमारियां है। उसका इलाज ’ाहर या महानगरों में होता है। जिन बिमारियों का जिक्र कर रही हूं वह बिमारियां में अस्पताल के साथ - साथ डाक्टर और नर्स एवं विस्तर, अन्य अस्पताल की सुविधाएं होनी चाहिए वह नही है। बिमारी से पीडि़त लोग ’ाहर इलाज कराने आ जाने के क्रम मे कई लोगो की मौत हो जाती है जो बच गया वह आर्थिक रूप से इतना कमजोर हो जाता कि वह अपनी स्थिति से लम्बे समय से उबर नही पाता वह अलात काफी मंहगा होता हैं। इस इलाज के लिए उन्हे खेत बंधक में रखना पड़ता है।

रांची के बुडमू ब्लाक के मरूपीड़ी गांव के सतेन्द्र यादव एक समाजिक कार्यकर्ता है के बहन के पति बबलू की मौत मस्तिष्क मलेरिया के होने से हो चुकी वह एक किसान परिवार का था उनके परिवार ने उसे मांडर के अस्पताल में भरती कराये किन्तु उस अस्पताल ने उसे राजेन्द्र मेडिकल अस्पताल भेज दिया जहां उचित इलाज के अभाव में मौत हो गयी। सतेन्द्र यादव बताते हैं मलेरिया के लिए सरकारी अस्पताल में कोई व्यवस्था नही। मलेरिया हो जाने पर जोडि़स या टाइफाइड हो जाते है मलेरिया के किटानू ख्ूान में होते है। जिससे लोगो के ’ारीर में खून की कमी हो जाती हैं सरकारी अस्पताल में खून की व्यवस्था नही हैं। मस्तिष्क मलेरिया में कीड़नी काम नही करने जिसके लिए डायनोसिस की व्यवस्था होनी चाहिए वह भी नहीं है। जब राजधानी से मात्र 30 कि0 मी0 की दुरी पर बना मांडर अस्पताल में जो छोटानापूर के प’िचम क्षेत्र के गांव मुड़मा, माण्डर, बुडमू, ठाकूर गांव, चान्हों के लोग आते हैं। यह क्षेत्र आदिवासी और जंगल से घिरा है। अधिकंा’ा लोग किसान हैं। इलाज के लिए आते हैं छोटी बीमारी के लिए यह अस्पताल ठीक हैं लेकिन पूरा का पूरा झारखण्ड ही नही पूरा भारत इस मलेरिया बीमारी से ग्रसीत है। गांव माने गरीबी गरीबी माने मलेरिया गांव के लोग ऐसी स्थिति में जिनके पास पैसा है वह ’ाहर की ओर जाते है। गरीब व्यक्ति के पास पैसा नही होता है वह अपने जीवन से हाथ धो देते है। ऐसा ही कई हजार केस वहां है। सीबनी मुडमा की रहने वाली हैं उसे लगातार 3 बार मलेरिया से गुजरना पड़ा बार बार प्राइभेट डाक्टर से इलाज कराने के बाद भी उसे मलेरिया छोड़ नही रहा है।

वही स्थिति कुष्ट रोगी का हैं भारत सरकार कहती है कुष्ट रोगी भारत से समाप्त कर दिया गया है किन्तु रंाची के विधानसभा से मात्र 4 किलो मीटर के दूरी में बसा कुष्ट काॅलोनी अपनी बुनियादी सूविधाओं से दूर है। कुष्ट काॅलोनी के नाम पर मिट्टी के घर बना कर 500 परिवार रहते है। उन्हें कुष्ट काॅलोनी कह दिया गया हैं वहां ना लाइट हैं और ना किसी साफ सफाई की व्यवस्था कुष्ट रोगी के परिवार को 10 कि0 चावल सरकार की ओर से दिया जाता है वह चावल में कीड़े लग चुके होते हैं। उन्हें वे लेना नही पसंद करते हैं। वे लोग भीख मांग कर अपना गुजारा करते हैं।

कुछ दिनों तक गांव में धुमने के क्रम में हमने पाया कि जिस बिमारी से लोग मर रहे उसके प्रति सरकार और प्रेस दोनो संवेदन विहीन है। गरीब व्यक्ति बीमार पड़ जाए तो उसे अपनी जान दे कर ही उस बीमारी से मुक्ती मिलती है। मानव लम्बे समय से कई बीमारियों से आर्थिक रूप झेल रहा हैं। वही ब्र्ड फूलू के नाम पर हजार किस्से हमारे दुनिया में आ गयें।

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