शनिवार, 20 सितंबर 2008

एक और महिला संगठन बनाना जरूरी क्यों ?

महिलाओं को आधार बना कर अनेकों संगठन पहले से हैं किन्तु उन संगठनों को महिलाओं ने अपनी आव’यकता को देख कर नहीं बनाया बल्कि दुसरे संगठन में एक विग के रूप में महिलाओं का होना तय किया गया। आज तक भारत में जितने भी महिला संगठन हैं वह किसी न किसी संगठन के अधीन बना है। अधिन वाली स्थिति लगातार बनी हुई है। महिलाओं को कभी भी एक वर्ग के रूप में नहीं देखा गया है। अब तक के भारतीय समाज में औरतों के लिए जो ढांचा समाज ने बनाया है महिलाएं उसके अधिन हैं। हमारे समाज का ढांचा पूर्व में सामंती अर्थव्यवस्था आधारित था और अब पूंजीवादी अर्थव्यवस्था आधारित हैं. क्योंकि इस व्यवस्था की वैचारिक स्थिति भी होती हैै जो समाज के व्यक्ति को उस व्यवस्था के लायक बनाता है। जिसके कारण पुरूषों की तरह इस समाजिक ढांचा में महिलायें भी रहने की आदि हो गयी हैं। लम्बे समय से अधिन रहने कि प्रक्रिया में नये संगठन को बनाना और उसके रूप-स्वरूप पर विचार करना महत्वपूर्ण है। हर बार नये संगठन बनते और कमजोर होते रहें हैं, इस पर विचार करने की जरूरत है। महिला संगठन या आंदोलन के कमजोर होने के मूल कारण जो हमारे सामने स्पष्ट हैं वह है वर्ग के बाहर अब तक महिलाओं को देखा गया है, महिलाओं को अस्मिता के रूप में देखा गया है। जबकि सही तरीके से देखें तो हमारे समाज में उत्पादन और उत्पादन के संबध के साथ जुडे हुए समाज में लैगिक भेद हैं। समाज में उत्पादन में दो तरह के संबध है। 1. उत्पादन के साधन का मलिक होना और 2. उत्पादन के साधनों के मलिकों द्वारा ’ाोषित होना, जिनके श्रम को खरीदा जाता है, यानि मेहनतक’ा। इस आधार पर औरत कहीं भी उत्पादन के साधन की मलिक नहीं है(एक दृष्टि है)। भारतीय समाज में जातिय संरचना है जहां उत्पादन के साधन से महिला से वंचित है। उत्पादन के साधन हंै-जमीन, म’ाीन, फैक्ट्री, आदि। समाज में दो तरह के उत्पादन है -ः 1. अतिरिक्त ( बे’ा) मूल्यः मानव श्रम ’ाक्ति से अतिरिक्त ( बे’ा) मूल्य पैदा होता है। जिससे पूंजीपतियों का विकास होता है। पूंजीवादी संबधांे का विकास होता है और‘’ाोषण की व्यापकता होती जाती है। 2. पूर्णउत्पादन ;तमचतवकनबजपवदद्धरू एक मजदूर अपने औरत के साथ एक मजदूर पैदा करता है। इस हिसाब से समाज, राज्य, राष्ट्र में वह सबसे नीचले पायदान पर है, एक निचले तबके की है और पूंजीवादी समाज में सबसे नीचला तबका श्रम करने वालों का होता है। पंूजीवादी विचार के खिलाफ क्रांतिकारी विचार के आधार पर संगठन न तो बनाने दिया जाता है और न हीं बनाया जाता है। आज तक जितने भी संगठन बने हंै एकल आधार पर ही बनता है- जाति, लैंगिक, मजदूर, आदि का संगठन बनता है। समग्र रूप से देखंे तो महिला आंदोलन एकलवादी आंदोलन है। वर्ग के आधार पर कभी संगठन नहीं बना है। महिला संगठन लैंगिक आधार पर बनता है वर्ग के आधार पर नहीं बनाया जाता है। यदि वर्ग के आधार पर संगठन बनाते, तब आजादी के 60 सालों में महिलाओं की राजनीतिक पार्टियों में महत्वपूर्ण भूमिका होती और महिलाएं नेतृत्व में बहुतायत की संख्या में होती।महिलाओं के लैंगिक-दैहिक ’ाोषण सामंती-पूंजीवादी सामाजिक व्यवस्था के कारण है। यूरोप के दे’ाों में पढ़ी-लिखी औरतों ने अपना संगठन बनाया, जिसमें महत्वपूर्ण नेता ‘सिमाॅन दी वाॅ’ ने भी नहीं समझीं और वह भी लैंगिक आधार पर संगठन बनाती रहीं। उन्होंने इस बात पर घ्यान नहीं दिया। उनकी पुस्तक दी सेकेण्ड सेक्स में उन्होंने यह स्वीकार करते हुए कहा है कि वे पुरूषांे के अधिन हैं। लेकिन समाज मुक्ति-आन्दोलन के लिए किसी आन्दोलन व संगठन को लैंगिक आधार पर आदमी और औरत में बांटा नहीं जा सकता। इससे समाज के मुक्ति-आन्दोलन के संघर्ष को आगे बढ़ाया नहीं जा सकता और मुक्ति-संघर्ष को उच्च स्तर पर नहीं पहुंचाया जा सकता है। यूरोप में औरतों के आन्दोलन औरतों पर आधारित पुस्तकों, फिल्मों, संगीत की ओर जाने वाला दृष्टिकोण या फिर मोटे तौर पर सांस्कृतिक आधार पर ही रह गये। ‘सिमोन’ कोई छोटी-मोटी बुद्विजीवी नहीं थीं। लेकिन अपने मध्यवर्ग स्थिति के कारण अपने किताब में वर्ग की बात नहीं की। भारत में महिलाओं को जात के आधार पर बांट दिया गया (सबसे निचले स्तर के जातियों के परिवारों में महिलाएं ’ाोषत होती है) । आज तक जितने भी महिला संगठन हैं वह किसी न किसी राजनीति पार्टी के अधिन ही रही हैं। उसका अपना स्वतंत्र समूह बनने नहीं दिया गया है जो अपने वर्ग ‘ मेहनतकश वर्ग ’ के साथ जुड़ कर अपने मुक्ति के संघर्ष को उच्च स्तर पर पहुंचा कर शोषण के इस व्यवस्था को समाप्त करके एक शोषण -मुक्त व्यवस्था बना सके।

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

Mahila sanghtan ki yojna btae please