सोमवार, 22 सितंबर 2008

भारत में नारी मुक्ति आंदोलन का इतिहीस

अलोका रांची

आधुनिक परिदृ श य में नारी मुक्ति का मुददा भारत में 1975 से शरू हुआ माना जा सकता हैं, जब भारत से स्त्रियों का बड़ा जत्था बर्लिन में प्रथम वि”वस्तरीय महिला कांफ्रेंस में भाग लेने गया। स्त्री मुक्ति के विभिन्न मुददे चाहे वे सती प्रथा, बाल विवाह, परदा प्रथा के हों या विधवा, तलाक सम्पति का अधिकार व स्त्री ”िाक्षा के ये सभी पहले से ही बहुत उठाए जाते रहें हैं। महारा’ट्र में ज्योतिबाफुले, सवित्रीबाईं, गुजरात में स्वामी दयानंद और बंगाल में ई”वरचंद विद्यासागर, राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द ने स्त्रियों के सामाजिक अधिकारों के पक्ष में अभियान छेड़ दिया था। इनसे भी बहुत पहले इतिहास पर दृ’िट डाले तो गौतम बुद्ध द्वारा आश्रम में स्त्रियों को प्रवे”ा देना और स्त्रियों का उद्रभव भी परिवार और समाज के उत्पीड़न के विरूद्ध खड़ी स्त्रियों की मुहिम ही मानी जाएगी। इन्होंने धर्मकी चैखट को या कहा जाए धार्मिक दुर्ग की दीवारों को तोड़ या लांघ कर उसमें प्रवे”ा या हस्तक्षेप करने की पहल की थी। प”िचम में ये मुहिम औद्योगिक क्रांति से “ाुरू हुई। भारत में उस रूप में उस रूप में तो नहीं लेकिन गांधी के स्वतंत्रता आंदोलन ने स्त्रियों को घर परिवार के बाहर निकालकर दे”ा के लिए आंदोलन करने और परिवार के दायरे की बजाएं, दे”ा के दायरे तक उनकी सोच को विस्तृत करने में एक बहुत बड़ी भूमिका निभाई या यूं कहा जाएं कि स्त्री को माॅं, बहन, पत्नी और प्रेमिका की भूमिका से निकलकर दे”ा के नागरिक की हैसियत हासिल करने की राह दिखाई। स्त्री मुक्ति की तरफ ये एक बहुत बड़ा कदम था। हालांकि आज्+ाादी की सिपाही या दे”ा की नागरिक बनी यह स्त्री, परंपराओं से मुक्त नहीं हो सकी थी लेकिन ये घर और परिवार की दीवारें तोड़ने में सफल हो गई थी। ये मुहिम उसकी राजनैतिक मुक्ति थी। गीता बहन, लक्ष्मी सहगल, अरूणा आसफ अली, कस्तूरबा, सरोजनी नायडू, कमला नेहरू, प्रियम्बदा और असंख्य सत्यग्रही महिलाएं इसकी मिसाल है। साहित्यकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर उपन्यासों, कहानियों व कविताओं में ऐसे स्त्री पात्रों को स्वतंत्र इकाई के रूप में पे”ा किया, जो बौद्धिकता, सामाजिकता तथा वैचारिकता के स्तर पर पुरू’ाों से केवल बहस ही नहीं करती थी बल्कि वे जुझारू होने के साथ-साथ यौन संबंधों में भी अपने निर्णय रूढि़यों के खिलाफ जाकर लेने लगी थी। बंगाल में रवंीन्द्रनाथ टैगोर की गीतंाजली के भावपूर्ण गीतों पर स्त्रियों स्वंय गाने व नृत्य करने लगी थी। वे प्रकृति और प्रेम जो पहले वर्जित थे के गीत मुक्त रूप से गाने लगी थीं। बंगला साहित्य के “ारतचंद्र, श्रीकंात, आ”ाापूर्णा देवी ने जहां कमला व लक्ष्मी को खड़ा किया, वहीं उर्दू में तस्लीमा और कुर्तूल ऐन हैदर ने स्त्री अस्मिता को एक अलग रूप दिया।स्त्री मुक्ति की अवधारणा भिन्न-भिन्न समाजों में, विकास के भिन्न-भिन्न स्तर व भौगोलिक परिस्थितियों के कारण भी अलग-अलग होती है। आज भी “ाहरी इलाकों में जहां मध्यमवर्गीय मानसिकता या अमिरजात व सवर्ण दृ’िटकोण, बौद्धिकता के भिन्न-भ्न्नि स्तर होने के कारण मुक्ति के भिन्न-भिन्न सपने पालता है, वहीं सर्वहारा वर्ग या तथाकथित निम्न जातीय समाज की स्त्रियां खुद खटने कमाने वाली पर आर्थिक रूप से कमज+ोर होने पर भी, स्वावलंबी होने के कारण मध्यवर्गीय स्त्रियों से उनका मुक्ति का सपना भिन्न होता है। इन बर्ग में उन्हें काम करने की स्वतंत्रता है। जि+न्दा रहने हेतु काम करना उनकी ज+रूरत ही नहीं मजबूरी भी है। मध्यवर्गीय मानसिकता वाले परिवारों की तरह नौकरी अथवा मज+दूरी करने में उनकी प्रति’ठा को बटटा नहीं लगता। चुंकि उनके समाज में और खटने कमाने वाला हाथ होते है - केवल खानेवाला परजीवी मुंह नहीं
आदिवासी समाज आदिवासी समाज भले सभ्य समाज के तथाकथित परिकृ’ट संस्कारों से लैस नहीं पर वहां स्त्री दासी नहीं है। प्रेम तथा विवाह करने अथवा बाहर जाकर खुद से खटने कमाने और स्वावलंबी बनने को स्वतंत्र है। वहीं कोई बच्चा हरामी नहीं माना जाता है। वहीं विवाह इतना जड़ नहीं है। वहीं रि”ता गति”ाील है वह बनता है - टूटता है - फिर जुड़ जाता है। यानि काफी सहज है। औरत की अपनी इच्छा भी इस व्यवस्था में रची बसी होती है। वै”वीकरण व बाज+ारवाद के चलते स्त्रियां वस्तु बनती जा रही है। इस पर कुछ दूर तक सहमत करते हुए वे कब वस्तु नहीं थी, वे तो घर परिवार और समाज की नज+रों में वस्तु ही थी। वे खुद को वस्तु की ही तरह पति व तरिवार के लिए सजती संवरती थी। आज घर का दायरा टूटकर बाज+ार तक पहुंच गया है। पहले भी ये दरबारों, भक्त मंण्डलियों या साधु संतों तक जाता था। कौन नहीं जानता की राजा - महराजा स्त्रियों को वि’ाकन्या बनाकर दूसरे राज्यों में भेजकर राजाओं की हत्या करवाते थे। इन्द्र ने मेनका का उपयोग वि”वामित्र का तप भंग करने के लिए किया था। आखिर क्या समझकर एक सुंदरी को हथियार या औज+ार माना गया? इन सब के बावजूद इन स्त्रियों को न समाज ने, न इतिहास ने योद्धा माना और न ही “ाहीद कहा उनकी विरूद्ध बालियां भी नहीं गायी गयी। अनेक मिथक इसके साक्षी है कि भारतीय मानस में स्त्री सदैव एक वस्तु ही रही, चाहे घर हो, धर्म या सत्ता के गलियारे या बाज+ारों के कोठे। बल्कि आज स्त्री खुद को मनु’य मानने और मनवाने की मुहिम में सक्रिय हुई है। जहां बाज+ार व वै”वीकरण उसे विज्ञापन तो बना रहा है पर वही वह वै”वीकरण उसे वि”व के पैमाने पर एक सूत्र में जोड़कर स्त्री को स्त्री के नाते अस्मिता मजबूत करने का अवसर भी दे रहा है। झारखंड के आदिवासी समाज में स्त्री को हल जोतने की मनाही है। अगर वह हल जोत ले तो दंडस्वरूप बैल की तरह उसी को बैल बनाकर भूसा खिलाया जाता है और कंधे पर हल डालकर उससे खेत जुतवाया जाता है। इसी प्रकार छत (घर का छपर छाने) डाल लेने पर स्त्री का मुंह काला करके, सिर मुंडवाकर पूरे गांव में घुमाया जाता है। स्त्री को धनु’ा छूने का भी अधिकार नही है। हालांकि महेतास में जब - जब आदिवासी पुरू’ा पीकर बेहो”ा थे तो औरतों ने धनु’ा चलाया और तीन बार मुगल आक्रमणकारियों को परास्त किया था।

कोई टिप्पणी नहीं: