गुरुवार, 24 जनवरी 2008

रिश्तों की परिभाषा और अधिकार

विमला patil
दृष्टिकोण. हिंदू उत्तराधिकार कानून में परिवार और शादी पर गहरा जोर दिया गया है। शादी से बनने वाले परिवार और संयुक्त परिवार को अच्छे से परिभाषित करते हुए इसके दायरे में आने वाले सदस्यों की संपत्ति और देखभाल के अधिकार बांटे गए हैं। 1956 में हिंदू उत्तराधिकार कानून के पारित होने तक महिलाओं का पैतृक संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं होता था, न ही वे उत्तराधिकारी मानी जाती थीं।
उनकी कुल जमा संपत्ति वह 'स्त्रीधन' होता था, जो उन्हें शादी के दौरान मायके से दहेज के रूप में मिलता था। इसमें वह उपहार भी शामिल होते थे, जो उन्हें समय-समय पर परिजन त्योहारों या विभिन्न अवसरों पर दिया करते थे। तलाक या अलगाव की स्थिति में उन्हें वही गुजाराभत्ता मिलता था जो अदालत तय करती थी या परिवार अदालत के बाहर सदाशयता दिखाते हुए निर्धारित कर देते थे।
इस स्थिति में 1956 के हिंदू उत्तराधिकार कानून ने उनकी स्थिति में क्रांतिकारी बदलाव लाने का काम किया। लड़कियों को पैतृक संपत्ति में वारिस माना गया। इसके बाद 2005 में इसी कानून ने संपत्ति के बंटवारे में भी बेटों के समान उन्हें समान अधिकार दे दिया। अभी तक संपत्ति से जुड़े सभी कानून पति-पत्नी के वैधानिक रिश्ते और उनसे उत्पन्न होने वाली संतान की परिभाषा के भीतर ही तय हो रहे थे।
ऐसे में हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अरिजीत पसायत वाली पीठ ने इस कानून के तहत 'लिव इन' संबंधों से उत्पन्न संतान को भी पिता की संपत्ति में समान अधिकार दे एक नया आयाम दे दिया है। हमारे परंपरागत समाज पर इस निर्णय का क्या प्रभाव पड़ेगा यह देखने वाली बात होगी। सर्वोच्च न्यायालय की पीठ की यह व्यवस्था उन सभी दंपतियों पर लागू होती है, जिन्होंने शादी नहीं की, लेकिन वे पति-पत्नी की तरह लंबे समय से साथ-साथ रह रहे हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि पीठ ने 'लिव इन' संबंधों से उत्पन्न बच्चों की निदरेषता व मासूमियत के आधार पर यह व्यवस्था दी है। पीठ को लगा होगा कि ऐसे संबंधों से उपजे बच्चों का अपने अभिभावकों के 'बगैर शादी साथ-साथ रहने के' निर्णय में कोई दखल नहीं होता है। फिर वे इसकी सजा क्यों भुगतें। इस क्रम में अभी यह देखना बाकी है कि इस निर्णय का वैध शादी से उपजे बच्चे और पत्नी पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
जैसा सभी जानते हैं कि आमतौर पर कोई भी कानून संसद में पास होने के बाद ही अस्तित्व में आता है। इसी तरह कई कानून अदालती निर्णय से भी समय-समय पर बनते हैं। संपत्ति और परिवार से जुड़े कानून इसी दूसरे वर्ग में आते हैं। किस तरह कोई शादी वैधानिक मानी जाएगी, किस तरह पति-पत्नी का दर्जा और अधिकार तय होंगे और किस तरह बच्चे या परिवार के अन्य सदस्य संपत्ति के अधिकारी बनेंगे सरीखे प्रश्न न सिर्फ संसद द्वारा पारित कानून से परिभाषित होते हैं, बल्कि इनमें न्यायिक स्तर पर सामूहिक बुद्धिमत्ता और अनुभव भी शामिल होता है।
सचाई तो यह है कि न्यायाधीश अरिजीत पसायत ने स्वयं स्वीकार किया है कि 'लिव इन' संबंधों से उत्पन्न बच्चे के संपत्ति के अधिकार से न सिर्फ भविष्य के निर्णय प्रभावित होंगे, बल्कि लंबे समय तक इन पर बहस भी चलेगी। प्रथम दृष्टया तो इससे मासूम बच्चे को आर्थिक सहायता ही प्राप्त होगी, जिसकी कोई गलती नहीं है। समाज के कुछ लोगों का मानना है कि यह वास्तव में एक सकारात्मक कदम है।
खासकर यह देखते हुए कि हम अब 21 वीं सदी में रह रहे हैं, जहां स्त्री-पुरुष के बीच नित नए संबंध सामने आ रहे हैं। लंबे समय से लिव इन संबंधों को कानूनन शादी की तरह देखने और उसे वही अधिकार देने के लिहाज से यह एक अच्छा कदम है। हालांकि एक प्रश्न यहां भी सिर उठाता है कि एक रात के संबंध से उपजी संतान की क्या हैसियत होगी? वे भी मासूम होते हैं और उन्हें भी नहीं मालूम होगा कि आखिर उसे जन्म क्यों दिया गया, खासकर जब उसके माता-पिता शादी के बंधन में नहीं बंधना चाहते थे? उनकी मां भी पिता की पैतृक संपत्ति में हिस्से की मांग कर सकती हैं।
ऐसे में भ्रम की स्थिति आ सकती है कि आखिर लिव इन संबंधों के दौरान जन्मे बच्चे को कितनी अवधि के बाद पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिल सकता है? पैतृक संपत्ति में हिस्सा हासिल करने के लिए अभिभावकों को कितने समय तक साथ-साथ रहना जरूरी होगा? अलग-अलग जाति या धर्म के होने पर क्या स्थिति होगी? हालिया अदालती निर्णय के आलोक में ये प्रश्न स्वाभाविक तौर पर सिर उठाते हैं। संभव है कि इनके जवाब आते वक्त के साथ ही मिलें।
फिर भी समान नागरिक संहिता के अभाव में और कई निजी कानूनों के लागू होने के कारण बहुत विसंगतियां हैं। यही वजह है कि परस्पर विरोधाभासी प्रतीत होने वाले निर्णय तर्क-कुतर्क के केंद्र बन जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णय का विरोध करने वाले खेमे का तर्क है कि यह निर्णय शादी रूपी संस्था के अस्तित्व को ही चुनौती देता है। सदियों से प्रत्येक समाज में स्त्री-पुरुष के मिलन को शादी के पवित्र बंधन से ही निरूपित किया गया है।
हमारे देश में एक लड़की जब शादी करती है तो वह सिर्फ पत्नी या मां ही नहीं बनती, बल्कि उस परिवार की एक सदस्य हो जाती है। उसे शादी के साथ ही ढेर सारे अधिकार और दर्जे मिलते हैं। जरूरी नहीं कि उसे प्राप्त होने वाला दर्जा आर्थिक ही हो। वह अपने पति और उसके परिवार के साथ धार्मिक और सामाजिक क्रियाकलापों में शादी और उसके परिणामस्वरूप मिले पत्नी के दर्जे के कारण ही भागीदारी कर पाती है।
अगर ऐसा न होता तो फ्रांसीसी राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी के साथ आने वाली उनकी गर्लफ्रेंड कार्ला ब्रूनी के आधिकारिक दर्जे को लेकर इतनी हाय-तौबा नहीं मचती। यही भारत की सामाजिक मान्यता है। ऐसे में यह निर्णय शादी की पवित्रता को आघात पहुंचाने वाला है। यह अलग बात है कि महानगरों में रहने वाले युवा वर्ग को सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय सामाजिक बदलाव की दिशा में उठा एक कदम प्रतीत हो रहा है। इससे लिव इन संबंधों में रह रहे दंपती भी अब गर्व के साथ सिर उठाकर चल सकते हैं। उन्हें अब इस तरह के संबंधों को लेकर कोई शर्म नहीं आएगी। हालांकि संयुक्त या बड़े परिवारों में लिव इन संबंधों से उपजे बच्चे और उसके संपत्ति के अधिकार को लेकर खासी असुविधा महसूस की जा सकती है। विधि विशेषज्ञों का भी मानना है कि लिव इन संबंधों में पत्नी की तरह रहने वाली महिला को पुरुष की संपत्ति में कोई अधिकार हासिल नहीं है। वह यहां भी पुरुष की इच्छा की ही पात्र रहेगी।
-लेखिका फेमिना की पूर्व संपादक हैं।

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